आधुनिक भारत के जनक राजा राममोहन राय

आधुनिक भारत के जनक राजा राममोहन राय
आधुनिक भारत के जनक राजा राममोहन राय

राजा राममोहन राय आधुनिक भारत के जनक थे। विवेचना कीजिये। 

राजा राममोहन राय को पट्टाभि सीतारमय्या ने भारतीय राष्ट्रीयवाद का दूत एवं आधुनिक भारत का जनक कहा है।  राजा राममोहन राय के प्रमुख विचार हैं-

(1) राजनीति सम्बन्धी विचार-

राजा राममोहन राय आधुनिक अर्थों में राजनीतिक विचारक नहीं थे, वे तो परिवर्तन और सुधार के उन्नायक थे। उन्होंने धार्मिक, सामाजिक राजनीतिक और मानवीय विषयों पर अपने विचारों और मान्यताओं को व्यक्त किया। उस समय की सरकार से उन्होंने अपेक्षा की कि वह मानवीय मूल्यों का सम्मान करें और शासन सुधारों द्वारा भारतीयों को अधिक से अधिक सुविधायें उपलब्ध करायें। राजा राममोहन राय का समय अलग ही था. उस समय देश में कोई राजनैतिक माहौल नहीं था तथापि राजा राममोहन राय ने आश्चर्यजनक ढंग से शासन- सजा द्वारा भारत में परिवर्तन की पहल कराई तथा उपने राजनीतिक विचारों को सरकार तक पहुँचाया। तभी तो सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने उन्हें भारत का संवैधानिक आन्दोलन का जनक कहा था।

(2) व्यक्तिगत तथा राजनीतिक स्वतंत्रता का सिद्धान्त-

राजा राममोहन राय व्यक्तिगत स्वतंत्रता के समर्थक थे। उनका विश्वास व्यक्ति की स्वतंत्रता, स्वायत्तता और समानता में था. वे कार्य और विचार के समर्थक थे। उनका विश्वास व्यक्ति की स्वतंत्रता स्वायत्तता और समानता में था. ये कार्य और विचार दोनों की स्वतंत्रता के समर्थक थं। वे इस बात के भी समर्थक थे कि यदि विरोधी के विचार अपने विचार से मेल नहीं खाते तो भी उन्हें प्रकट करने की मानवीय स्वतंत्रता होनी चाहिए।

राजा राममोहन राय स्वतंत्रता को केवल व्यक्ति के लिए ही नहीं अपितु राष्ट्रों के लिए भी आवश्यक मानते थे. इसी कारण उन्होंने विश्व के विभिन्न देशों में लोक-स्वतंत्रता की वृद्धि के उद्देश्य से चलाये जाने वाले राजनीतिक आन्दोलनों के प्रति हार्दिक सहानुभूति प्रकट की थी।

(3) प्रेस एवं भाषण की स्वतंत्रता-

प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति राजा राममोहन राय का विशेष आकर्षण था। उन्होंने ब्रह्म निकल मैगजीन, संवाद कौमुदी, मिरात-उल- अखबार तथा बंगदूत नामक समाचार-पत्रों का प्रकाशन किया। इन पत्रों के माध्यम से सार्वजनिक हित के अपने विचारों को उन्होंने आम जनता तक पहुँचाया। जब 1823 में गवर्नर जनरल ने प्रेस आर्डिनेन्स जारी किया, जिसमें यह व्यवस्था थी कि समाचार पत्र निकालने कि लिए सरकार से लिशेष लाइसेंस लेना पड़ेगा तब राजा राममोहन राय ने अपने पांच मित्रों के हस्ताक्षर से सर्वोच्च न्यायालय के सम्मुख एक पिटीशन प्रस्तुत करके, प्रेस की स्वतंत्रता की मांग की। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पिटीशन अस्वीकार किये जाने पर उसकी अपील किंग-इन काउसिल में की। उनका तर्क था कि प्रेस की स्वतंत्रता, शासक और शासित दोनों के लिए लाभकारी है। प्रिवी काउंसिल द्वारा अपील खारिज किये जाने पर विरोधस्वरूप उन्होंने अपना प्रमुख फारसी भाषा का साप्ताहिक पत्र मिरात-उल-अखबार बन्द कर दिया। यह राजा राममोहन राय के सक्रिय विरोध का ही परिणाम था कि उनकी मृत्यु के पांच वर्ष पश्चात सरकार ने (चार्ल्स मेरकाफ) प्रेस पर लगाये गये प्रतिबन्धों को हटा लिया।

प्रेस की स्वतंत्रता, ये राजनैतिक जागृति के लिए चाहते थे, उनका विचार था कि इससे संवैधानिक सरकार मजबूत होगी तथा पेस, जनता और शासन के बीच एक कड़ी का काम करेगी। प्रेस पिछड़े हुए समाज को नई रोशनी देगा। उनका मत प्रेस की स्वतंत्रता के नाम पर शासन को उखाड़ फेंकने का या नष्ट करने का नहीं था क्योंकि राजा राममोहन राय स्वयं एक पत्रकार थे, अत: प्रेस की स्वतंत्रता को वे बहुत महत्वपूर्ण मानते थे।

(4) न्यायिक-व्यवस्था-

राजा राममोहन राय प्रथम भारतीय थे, जिन्होंने ब्रिटिश संसद की विशिष्ट समिति के सम्मुख न्याय-व्यवस्था में सुधार हेतु महत्वपूर्ण दस्तावेज प्रस्तुत किया। वे प्रशासन और न्याय-विभागों को अलग-अलग करने के समर्थक थे।

भारत में स्वराज और न्यायिक व्यवस्था नामक छोटी पुस्तिका में उन्होंने भारत में न्याय-व्यवस्था में सुधार हेतु महत्वपूर्ण विचारों का उल्लेख किया। उन्होंने कानूनों को संहिताबद्ध करने (ब्रिटेन में वैधम ने भी लगभग इसी समय आवाज उठायी थी ) शक्ति पृथक्करण न्यायाधीशों की ईमानदारी, कुशलता, स्वाधीनता, पूरी प्रणाली, बन्दी प्रत्यक्षीकरण अधिनियम को अपनाने और अधिकारियों के कानूनों को इस तरह संहिताबद्ध कर दिया जाये कि मुसलमानों तथा ईसाइयों या किसी को भी प्रमाणित पुस्तक का हवाला देकर या व्याख्या करने की आव उन्होंने कलेक्टर के पद के साथ प्रशासनिक और न्यायिक शक्ति के सम्मिश्रण का जोरदार विरोध किया।

राजा राममोहन राय प्राचीन भारतीय समाज में प्रचलित पंचायत प्रणाली के समर्थक थे। इस समय प्रचलित पूरी प्रणाली का उन्होंने समर्थन किया और सुझाव दिया कि अनुभवी भारतीय विधि-विशेषज्ञों को जूरी का सदस्य बनाना चाहिए। इसी दृष्टि से उन्होंने 1827 के उस अधिनियम का विरोध किया जिसमें भारत में जूरी व्यवस्था प्रचलित तो की गई पर उसमें यह व्यवस्था की गई थी कि ईसाई के मुकदमों का विचार ईसाई कर सकेंगे। राजा राममोहन राय ने देश के प्रमुख हिन्दू और मुस्लिम बुद्धिजीवियों के हस्ताक्षरों से युक्त आवेदन-पत्र जून 1829 को ब्रिटिश संसद के सम्मुख प्रस्तुत किया जिसमें उपरोक्त व्यवस्था का विरोध किया गया था। तथापि राजा राममोहन राय ने अपना विरोध और संघर्ष समाप्त नहीं किया। परिणामत: सन् 1833 में चार्ल्स ग्रान्ट द्वारा जूरी बिल पास किया गया जिसमें 1827 के जूरी कानून के आपत्तिजनक उपबन्धों को रद्द किया गया।

(5) राजा राममोहन राय के महिलाओं के सम्बन्ध में विचार-

राजा राजमोहन राय ने बाल विवाह का विरोध किया। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया तथा सती प्रथा का प्रबल विरोध किया। उन्हों के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप 1829 में तत्कालीन गवर्नर जनरल लाई विलियम बैंटिक ने सती-प्रथा को अवैध घोषित किया तथा कानून बनाया।

राजा राममोहन राय हिन्दू स्त्रियों को उत्तराधिकार का अधिकर देने के पक्ष में थे, इस रूप में वे पहले भारतीय विचारक थे। 1822 में उन्होंने इस सम्बन्ध में एक विचारोत्तेजक लेख “माइन- एन्क्रोचमेन्ट ऑफ फीमेल्स अर्कोडिंग टू दी हिन्दू लॉ” (हिन्दू उत्तराधिकार विधि पर आधारित स्त्रियों के प्राचीन अधिकारों का आधुनिक अतिक्रमण) लिखा। इस लेख में उन्होंने प्राचीन धर्मशास्त्रियों नारद, याज्ञवल्क्य आदि का उल्लेख करते हुए यह स्थापित किया कि प्राचीन समय में पति को मृत्यु के बाद उसकी छोड़ी गी जायदाद सम्पत्ति में स्त्री को पुत्र के समान और पुत्री को एक चौथाई भाग मिलता था। राजा राममोहन राय के उपरोक्त विचार आज भले ही हमें सामान्य लगें पर उस समय की स्थिति को देखते हुए काफी क्रान्तिकारी और प्रगतिशील थे।

(6) राजा राममोहन राय के शिक्षा सम्बन्धी विचार-

राजा राममोहन राय ने महसूस किया कि उस समय की शिक्षा पद्धति में सुधार किये बिना देश को रूढ़ियों की तंद्रा से जगाना संभव नहीं होगा। सम्पूर्ण शिक्षा पद्धति की जांच पड़ताल जरूरी है भारत, संसार में फिर से अपना सही स्थान पा सके। इसके लिए एक विवेकपूर्ण और वैज्ञानिक शिक्षा की आवश्यकता थी। जब कंपनी सरकार ने एक ऐसा संस्कृत विद्यालय खोलने का निर्णय लिया जिसमें हिन्दू पंडित तत्कालीन प्रचलित शिक्षा को आगे बढ़ाते तब राजा राममोहन राय ने इस निर्णय के विरुद्ध आवाज उठाई। वे चाहते थे कि भौतिक विज्ञान, रसायनशास्त्र तथा गणित आदि की शिक्षा दी जाये। 11 दिसम्बर 1823 को उन्होंने गवर्नर जनरल लार्ड एमहर्स्ट को पत्र लिखा जिसमें उन्होंने कहा, “सरकार एक ऐसा विद्यालय खोल रही है जिसमें हिन्दू पंडित ऐसी शिक्षा देंगे जो यहाँ पहले से ही प्रचलित है। यह विद्यालय आज की युवा पीढ़ी को उनके मस्तिष्क को केवल व्याकरण की सुन्दरता और आध्यात्मिक विशेषताओं से लाद देगा जिसका सामाजिक जीवन में कोई खास उपयोग नहीं है। यदि ब्रिटिश सरकार विकास के लिए जनता को केन्द्र मानती है, यह बेहतर होगा कि विकासित और प्रबुद्ध शिक्षा पद्धति को प्रश्रय दिया जाये जिसमें गणित, भौतिकी तथा रसायनशास्त्र और शरीरशास्त्र से सम्बन्धित उपयोगी विज्ञान पढ़ाया जा सके।

राजा राममोहन राय का यह दृढ़ विश्वास था कि पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली द्वारा ही देश में जागरण की लहर पैदा होगी और हम आधुनिक चुनौतियों का सामना कर सकेंगे।

निष्कर्ष – आधुनिक भारत के इतिहास में राजा राममोहन राय वह प्रथम व्यक्ति थे जिसने समाज-सुधार के लिए आन्दोलन चलाया, अंध-विश्वासों सामाजिक सुरीतियों और पाखण्डों का विरोध किया तथा प्राचीन स्वतंत्र बुद्धिवादी वृत्ति की पुनः स्थापना की। वैयक्तिक स्वतंत्रता, समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता, राज्य का कल्याणकारी स्वरूप तथा न्यायिक व्यवस्था में सुधार की मांग की, महिलाओं की सामाजिक स्थिति के प्रति उनकी चिन्ता, विवाह, उत्तराधिकार, स्त्री-धर्म आदि के सम्बन्ध में उनके विचार, विदेशी शिक्षा पद्धति के सम्बन्ध में उनका प्रबल आग्रह, उन्हें सजग क्रान्तिकारी और दूरदर्शी पुरुष के रूप में स्थापित करता है। वे आधुनिक युग में सर्व-धर्म समभाव के प्रवर्तक थे उनका मानवतावाद तथा सार्वभौम धर्म सम्बन्धी विचार प्राचीन ऋषि परम्परा की पुनः स्थापना थी। वे भारत में राजनीतिक पुनर्जागरण के प्रथम सूत्रधार थे।

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