गोविन्द रानाडे के राजनीतिक विचार

गोविन्द रानाडे के राजनीतिक विचार
गोविन्द रानाडे के राजनीतिक विचार

गोविन्द रानाडे के राजनीतिक विचार

महादेव गोविन्द रानाडे एक मेधावी व्यक्ति थे। जीवन में उनके कार्यक्षेत्र भिन्न रहे। उन्होंने एक सम्पादक से लेकर प्रोफेसर और जज तक कई स्थितियों में कार्य किया तथा वे एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में देश की सेवा करते रहे। उनका प्रत्येक क्षण राष्ट्रहित चिन्तन में ही व्यतीत होता था। उनके राजनीतिक विचारों को निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है-

समस्त सांसारिक क्रियाओं का कर्त्ता एवं नियंत्रक ईश्वर है-

रानाडे महोदय ईश्वर की सत्ता एवं शक्ति में अटूट विश्वास रखते थे। हेगले, बोसांके तथा केशव चन्द्र सेन की तरह रानाडे का भी विश्वास था कि इतिहास में ईश्वरीय शक्ति कार्य करती है। इसलिए उन्हें ईश्वरीय आदेशों में आस्था थी। वे किसी मानवीय शक्ति को ईश्वर के आदेश से ऊंचा मानने के लिए तैयार न थे। भारतीय इतिहास के उतार-चढ़ाव में भी उन्हें इच्छा तथा विवेक की कार्यान्विति दिखाई देती थी। उनका दृढ़ विश्वास था कि भारत अवश्य ही उन्नति करेगा। 1893 के लाहौर अधिवेशन में उन्होंने कहा था- मुझे अपने धर्म के दो सिद्धान्तों में पूर्ण विश्वास है। हमारा यह देश सच्चे अर्थ में ईश्वर का चुना हुआ देश है, हमारी इस जाति का परित्राण विधि के विधान में है। यह सब निरर्थक नहीं था कि ईश्वर ने इस प्राचीन आर्यावर्त्त पर अपने सर्वोत्कृष्ट प्रसादों को वर्षा की थी। इतिहास में हमें उसका हाथ स्पष्ट दिखाई देता है। अन्य सब जातियों की तुलना में हमें एक ऐसी सभ्यता, एक ऐसी धार्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था उत्तराधिकार में मिली हैं जिसे समय के विशाल मंच पर अपने आप विकास का स्वतंत्र अवसर दिया है। इस देश में कोई क्रान्ति नहीं हुई किन्तु फिर भी पुरानी स्थिति ने अपने आपको परिपालन की धीमी प्रक्रिया के द्वारा स्वतः सुधार लिया है। देश पर अनेक आक्रमण हुए। उनका तात्कालिक परिणाम विनाशकारी हुआ परन्तु अन्त में जाकर उन सबका फल यह हुआ कि संस्कृति की विभिन्न धाराएँ मिल-जुल गयीं और जीवन में राजनीतिक तथा प्रशासनिक समन्वय स्थापित हो गया, किन्तु रानाडे भारतीय जीवन के दोषों के भी कटु आलोचक थे। उन्होंने स्वीकार किया कि भारतवासियों ने जीवन के लौकिक क्षेत्रों में, विज्ञान तथा प्राविधि में और नगर प्रशासन तथा नागरिक गुणों में पर्याप्त श्रेष्ठता का परिचय नहीं दिया था। अतः मैकियावली की भाँति रानाडे ने भी राजनीतिक तथा नागरिक गुणों के विकास पर बल दिया। सामाजिक तथा नागरिक चेतना की यह शिक्षा भारत के ब्रिटेन के साथ सम्पर्क से ही उपलब्ध हो सकती थी। इसलिए उन्होंने बताया कि भारत में ब्रिटिश शासन के पीछे ईश्वर का मुख्य उद्देश्य इस देश को राजनीतिक शिक्षा देना है। अपने देश के प्रति गंभीर प्रेम के बावजूद रानाडे मानते थे कि ब्रिटिश शासन से भारत को अनेक नियामतें उपलब्ध हुई।

वे भारत में ब्रिटिश शासन को कृपालु ईश्वर के विधान का ही एक अंग मानते थे। उनका विचार था कि यद्यपि ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत वैयक्तिक प्रतिभा की अभिव्यक्ति के लिए कम गुंजाइश थी और वैयक्तिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए क्षेत्र भी सीमित था किन्तु बहुसंख्यक जनता के लिए संभावनाएँ अधिक थीं और देश का भविष्य महान था, शर्त यह थी कि उपलब्ध अवसर और सुविधाओं का उपयोग किया जाए और लोग हृदय से राष्ट्रीय पुनर्निर्माण • और सामाजिक उद्धार के लिए कार्य करें। रानाडे के इस विचार को बाद में फिरोजशाह मेहता और गोपाल कृष्ण गोखले ने दुहराया।

राज्य की प्रकृति

राज्य की प्रकृति के सम्बन्ध में रानाडे ने प्रत्ययवादी व व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों का समन्वय किया। वे निर्मम प्रतिस्पर्धा के जो पूँजीवादी अर्थतंत्रवादी का आधार है, कट्टर शत्रु थे। वे राज्य की अवयवी प्रकृति में विश्वास करते थे, इसलिए जर्मन विचारकों के आदर्शों से उन्हें सहानुभूति थी। 1896 में कोलकाता के सामाजिक सम्मेलन में उन्होंने लगभग फिटे और हेगले जैसी भावना को व्यक्त करते हुए कहा “आखिरकार राज्य का अस्तित्व इसलिए है कि वह अपने सदस्यों को उनके प्रत्येक जन्मजात गुण का विकास करके अधिक श्रेष्ठ, सुखी, समृद्ध तथा पूर्ण बनाये किन्तु उनका कहना था कि यह महान उद्देश्य तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक राजनीतिक समाज के सब सदस्य अपनी मुक्ति के लिए अधिकाधिक ईमानदार तथा सच्चाई के लिए प्रयत्न नहीं करत\। अतः आवश्यक है कि व्यक्तियों की बुद्धि को मुक्त किया जाए। उनके कर्त्तव्यपालन के स्तर को उठाया जाए और उनकी सभी शक्तियों का पूर्ण विकास किया जाये। अपने इस भावात्मक दृष्टिकोण के कारण ही रानाडे बैंचम पंथियों से भित्र थे। राज्य के कार्यों के सम्बन्ध में रानाडे के भावात्मक दृष्टिकोण का परिचय इस बात से मिलता है कि उन्होंने औद्योगीकरण, उपनिवेश, आर्थिक जीवन के नियोजित संगठन, समाज सुधार तथा उद्योगों के संरक्षण के क्षेत्र में राज्य के अभिक्रम का समर्थन किया। इस प्रकार यद्यपि भारत की व्यावहारिक, राजनीतिक समस्याओं के सन्दर्भ में रानाडे की विचारधारा उदारवादी थी किन्तु -उनका राज्य दर्शन जर्मन प्रत्ययवादियों और फ्रीड्रिख लिस्ट के अधिक निकट था।

स्वतंत्रता सम्बन्धी विचार

स्वतंत्रता के सम्बन्ध में रानाडे का दृष्टिकोण अंशतः न्यायिक था। उनके मतानुसार स्वतंत्रता का अर्थ नियंत्रण अथवा शासन का अभाव नहीं है बल्कि उसका अर्थ है कानून की व्यवस्था के अन्तर्गत शासन। उसका निश्चय ही यह अर्थ है कि मनुष्य को असहाय की भांति दूसरों पर निर्भर न रहना पड़े और सत्ता तथा शक्ति को धारण करने वालों के अनुचित व्यवहार से उसकी रक्षा की जाए। इस प्रकार रानाडे का दृष्टिकोण माण्टेस्क्यू तथा संविधानवादियों से मिलता-जुलता है। उन्होंने फ्रांसीसी लेखक दुनोयर के इस मत को स्वीकार किया कि स्वतंत्रता केवल नियंत्रण का अभाव नहीं है बल्कि हर प्रकार के श्रम की क्षमता की वृद्धि करने का भावात्मक प्रयत्न है। 1893 में उन्होंने कहा था- स्वतंत्रता का अभिप्राय है कानून बनाना, कर लगाना, दण्ड देना तथा अधिकारियों की नियुक्ति करना। स्वतंत्र तथा परतंत्र देश में वास्तविक अन्तर यह है कि यहाँ दण्ड देने से पहले उसके सम्बन्ध में कानून बना लिया गया हो। कर लेने से पहले अनुमति ले ली गयी हो और कानून बनाने से पहले मत ले लिए गये हों, वही देश स्वतंत्र है।

रानाडे के अनुसार विधि के शासन तथा संसदीय शासन प्रणाली को स्वीकार करके ही किसी देश में स्वतंत्रता की स्थापना की जा सकती है। न्यायाधीश होने के नाते उनका अनुभव था कि न्यायपालिका स्वतंत्र देश का आधार स्तम्भ है। उन्होंने विकेन्द्रीकरण का भी समर्थन किया है। और देश में एकरूपता की बढ़ती हुई प्रवृत्ति की आलोचना की किन्तु उन्होंने स्वतंत्रता के व्यक्तिवादी और विधिक दृष्टिकोण के साथ राज्य के कार्यों की भावात्मक धारणा का समन्वय किया। वे चाहते थे राज्य शिक्षा का परिवर्द्धन ।

रानाडे के विचारों का मूल्यांकन

रानाडे स्वतंत्रता तथा लोकतंत्र के आदर्शों में विश्वास करने वाले एक उदारवादी नेता थे। उनके सम्बन्ध में डॉ. वी. पी. वर्मा ने लिखा है- “रानाडे भारतीय इतिहास में राष्ट्रीयता के अग्रदूत, स्वतंत्रता के आदर्शों के प्रवर्तक, सामाजिक विकास तथा सांस्कृतिक अभ्युदय के प्रचारक थे। इस प्रकार वह भारतीय राष्ट्रीयता के महान गुरु तथा कट्टर समर्थक थे। ह्यूम के कथनानुसार रानाडे वास्तव में अपने देश का ही विचार करते रहते थे। वे भारत में राष्ट्रीय चेतना की लहर फैलाने वाले अग्रदूतों में से एक थे। सामाजिक सुधारों को वे राजनीतिक अधिकार पाने का एक साधन मानते थे। रानाडे का महत्व इस बात में है कि उन्होंने पाश्चात्य विचारों का मूल्यांकन करके यह बताया कि भारत में उन्हें किस सीमा तक लागू किया जा सकता है। उन्होंने भारतीय कृषि में सुधार एवं भारतीय उद्योगों के विकास के लिए महत्वपूर्ण सुझाव दिये। उदारवादी होने के कारण वे क्रान्तिकारी कार्यों का समर्थन नहीं करते थे और भारत में ब्रिटिश शासन को एक दैवी योजना मानते थे जो भारत के लिए लाभदायक थी।”

सामाजिक सुधार उनके मुख्य उद्देश्यों में थे और वे उन्हें अति आवश्यक मानते थे। नारी जाति को समानता का अधिकार देकर वे उसे सम्मानित करना चाहते थे। नारी जाति के लिए उनके विचार तथा कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण थे।

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