भारतीय पुनर्जागरण एवं राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि | Background of Indian Renaissance and Nationalism in Hindi

भारतीय पुनर्जागरण एवं राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि | Background of Indian Renaissance and Nationalism in Hindi
भारतीय पुनर्जागरण एवं राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि | Background of Indian Renaissance and Nationalism in Hindi
भारतीय पुनर्जागरण एवं राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि पर संक्षेप में प्रकाश डालिये। 

पुनर्जागरण का अर्थ मानव प्रकृति पुत्र है। वह प्रकृति एवं लोगों के सम्पर्क से जितना अधिक ज्ञान प्राप्त करता है उतना अन्य किसी साधन से प्राप्त नहीं कर सकता। मानव एक बौद्धिक प्राणी है। उसकी बुद्धि विशेष ही उसे अन्य प्राणियों से विशिष्ट बना देती है। मानव की कुछ मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं, जिनमें उनकी अनुकरण अथवा नकल करने की भी प्रवृत्ति है। इसी प्रकृति के कारण वह अपने ज्ञान, विज्ञान, शिक्षा, सभ्यता एवं संस्कृति की वृद्धि करता है। जब व्यक्ति किसी नवीन वस्तु को देखता है तो शीघ्र ही उसके प्रति आकर्षित हो जाता है और अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण उस वस्तु को प्राप्त करने की चेष्टा करने लगता है। इस कार्य में उसकी चेतन शक्ति प्रतिक्रिया के रूप में कार्य करने लगती है। व्यक्ति की इसी प्रवृत्ति और प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप पुनर्जागरण होता है। अतः भारतीय पुनर्जागरण भी इसी प्रवृत्ति एवं उसके कार्य करने की प्रक्रिया का परिणाम है।

उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व भारत में समय-समय पर अनेक आन्दोलन हुए परन्तु उनके पीछे आध्यात्मिकता की भावना सर्वथा भिन्न रही जैन, बौद्ध तथा इस्लामी आन्दोलन आध्यात्मिकता की शिला पर आधारित रहे। भारत में समय-समय पर विदेशी जातियों ने आकर भारतीय संस्कृति को अपनी संस्कृति में रंगने का प्रयास किया।

अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यूरोपीय जातियाँ व्यापार के उद्देश्य से भारत में आईं। उन्होंने व्यापार के साथ-साथ भारत में ईसाई धर्म का प्रचार भी आरम्भ किया किन्तु इसमें सफलता न मिलने पर उन्होंने भारत की राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू कर दिया। उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेज जाति शासन में अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफल हुई। अब भारतीय संस्कृति को यूरोपीय संस्कृति से टक्कर लेनी पड़ी। फलस्वरूप भारत में पुनर्जागरण का उदय हुआ।

भारतीय पुनर्जागरण तथा यूरोपीय पुनर्जागरण में भिन्नता

पुनर्जागरण का तात्पर्य ‘प्राचीनता पर नवीनता की विजय स्थापना’ है। दूसरे अर्थ में किसी भी देश की विकासशील अवस्था में दीर्घकाल के बाद पुनः उन्नति की ओर बढ़ने की अवस्था का नाम ही पुनर्जागरण है। भारतीय पुनर्जागरण को यूरोपीय पुनर्जागरण से भिन्न माना गया है। 17वीं शताब्दी में यूरोपीय विद्वानों मिल्टन, बेकन, पेशसिल्सस तथा मौण्टेन आदि के लेखों ने यूरोप में पुनर्जागरण का सूत्रपात किया। यह पुनर्जागरण दो तत्वों- बौद्धिकता और कलात्मकता से प्रभावित था, परन्तु भारतीय पुनर्जागरण नैतिकता एवं आध्यात्मिकता से अनुप्रेरित था । यूरोपीय पुनर्जागरण का अभ्युदय रोम से हुआ और बाद में संपूर्ण यूरोप में फैला। जिस प्रकार रोम के पुनर्जागरण एवं जर्मन के सुधारवाद ने सम्पूर्ण यूरोप के लिए पुनर्जागरण का मार्ग प्रशस्त किया उसी प्रकार भारत के पुनर्जागरण में अनेक धार्मिक संतों एवं सुधारकों ने भारतीयों के मन में एक स्वशासित एवं स्वनिर्मित स्वतंत्र राष्ट्र के अस्तित्व की इच्छा को जाग्रत किया।

पुनर्जागरण तथा राष्ट्रवाद

 पुनर्जागरण की पृष्ठभूमि में राष्ट्रवादी भावना का विशेष महत्व है। राष्ट्रवादी भावना के बिना पुनर्जागरण की प्रक्रिया का विकास सम्भव नहीं हो सकता है। उदाहरणार्थ, रोमन साम्राज्य के विघटन के बाद अनेक राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना हुई।

इसी प्रकार जब भारत में पुनर्जागरण का प्रादुर्भाव हुआ तो उसमें भी राष्ट्रवादी शक्तियाँ सक्रिय हो गईं। स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, अरविन्द घोष, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय एवं विपिन चन्द्र पाल आदि ने प्राचीन रूढ़ियों एवं परम्पराओं का विरोध करके जनता में नवीन विचार प्रसारित किये। ये सभी नेता राष्ट्रवादी परम्परा के समर्थक थे। कालान्तर में इन्हीं नेताओं के विचारों के आधार पर महात्मा गाँधी ने देशा में विराट स्वतंत्रता आंदोलन और शोषितों-दलितों के उत्थान के आन्दोलनों का सूत्रपात किया।

भारतीय पुनर्जागरण एवं एशिया महाद्वीप

भारतीय पुनर्जागरण ने सम्पूर्ण एशिया महाद्वीप को झकझोर दिया। एशियाई देशों में पुनर्जागरण की आँधी आ गई और जनता का साहस स्वतंत्रता प्राप्ति के आन्दोलन के रूप में प्रकट हुआ। जापान की आश्चर्यजनक विजय ने पाश्चात्य देशों की अजेयता को भंग कर दिया। चीन में सनयात सेन तथा टर्की में कमाल पाशा ने एशियाई पुनर्जागरण की नींव डाली। तिलक तथा गाँधी भारतीय पुनर्जागरण के अग्रवर्ती नेता बन गये। एशिया के इस पुनर्जागरण द्वारा पाश्चात्य के साम्राज्यवाद का घोर विरोध प्रस्फुटित हुआ एवं राष्ट्रवादी शक्तियों के सहयोग में वृद्धि हुई। सम्पूर्ण एशिया में साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के विरुद्ध विशाल जनमत तैयार हो गया। एशिया की दबी कुचली जनता अपने अतीत के गौरव को पहचान कर चेतनाशील हो गई।

भारतीय राष्ट्रवाद की संक्षिप्त रूपरेखा-राष्ट्रवाद

का प्रादुर्भाव प्राचीन काल में ही भारत में हो चुका था। वैदिक काल में भी राष्ट्रवाद के चिह्न दृष्टिगोचर होते हैं। रामचन्द्र जी की लंका विजय का उत्सव आज भी विजयादशमी के रूप में प्रतिवर्ष सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है। लंका विजय के बाद लक्ष्मण के इस प्रश्न पर कि “हमने अब सोने की लंका विजय कर ली है, अयोध्या जाने से अब क्या होगा ?” राम उत्तर देते हैं- “हे लक्ष्मण, लंका तो सोने की है यदि मुझे अपनी जन्मभूमि के बदले स्वर्ग दे दिया जाये तो भी उसे मैं स्वीकार न करूँगा।” राम का उत्तर राष्ट्रवाद की सूचना देता है।

इसी प्रकार चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने शकों पर राष्ट्रीय विजय प्राप्त कर विक्रम संवत चलाया था। अकबर के शासनकाल में भी राणाप्रताप ने निर्वासित रहकर भी राष्ट्रीय भावनाओं का शंखनाद फूंका। औरंगजेब के शासनकाल में मराठों ने राष्ट्रवाद की भावना को स्थायी रखा था। उन्होंने मुगलों के विरुद्ध भारत में राष्ट्रीय राज्य की स्थापना करने का अथक प्रयास किया था। पेशवा बाजीराव के समय में मराठों ने दिल्ली पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। सिख नेता रणजीत सिंह के नेतृत्व में सिख भी एक राष्ट्रीय शक्ति के रूप में संगठित हुए।

इसके बाद 1857 ई. में संगठित राष्ट्रवादी शक्तियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष किया किन्तु अभाग्यवश उन्हें अपने प्रयास में सफलता न मिल सकी। इसके पश्चात् राष्ट्रवादी भावना तीव्रतर होती गई और 1885 में राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। कालान्तर में महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक, बंगाल में विपिन चन्द्र पाल तथा स्वामी विवेकानन्द, पंजाब में लाला लाजपत राय, गुजरात में महात्मा गाँधी आदि राष्ट्रवादी नेताओं का प्रादुर्भाव हुआ। प्रारम्भ में राष्ट्रीय कांग्रेस सरकार से बातचीत करने वाली संस्था के रूप में ही सीमित रही परन्तु बाद में यह सम्पूर्ण भारत की एक राष्ट्रीय संस्था बन गई। सम्पूर्ण देश एकता के सूत्र में बँध गया और एक दिन भारतवासी स्वतंत्रता प्राप्त करने में सफल हुए। इस प्रकार कांग्रेस की स्थापना भारतीय राष्ट्रवाद के इतिहास में एक उल्लेखनीय घटना बन गई।

इस पुनर्जागरण के पीछे राष्ट्रीय भावना की शक्ति कार्य कर रही थी। भारत के राष्ट्रवादी नेताओं ने एक नवीन युग का सूत्रपात किया। अतः पुनर्जागरण और राष्ट्रवाद पृथक- पृथक न होकर अन्योन्याश्रित हैं और राष्ट्रवाद ही भारतीय पुनर्जागरण का मूल आधार है।

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