भारतीय पुनर्जागरण की प्रकृति की विवेचना कीजिए।
भारतीय चिन्तन पर पाश्चात्य प्रभाव-
पाश्चात्य धारणाओं ने भारतीय समाज एवं चिंतन को बहुत अधिक प्रभावित किया। इन्हीं के प्रभाव से भारत में बुद्धिवाद, उदारवाद तथा पुनर्जागरण का युग आया। देशवासियों के मन में स्वायत्त राजनीतिक जीवन की इच्छा जाग्रत हुई। आधुनिक एशिया का प्रबुद्धिकरण, उसमें नवीन जीवन का संचार तथा उसका तीव्रगति से होता हुआ पुनरुत्थान केवल एशिया के ही नहीं समूचे विश्व के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इससे पहले एशिया मुसलमानों की बर्बरता के कारण, आर्थिक-सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से जीर्ण-शीर्ण था। भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना से अनैतिक दासता से मुक्ति मिली और पाश्चात्य प्रभाव ने नई दिशा दी। फलतः 19वीं शताब्दी के मध्य में भारत पुनः अंगड़ाई लेने लगा। देश की प्राचीन संस्कृति को नेताओं ने पुनः जगाया। यह पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव था जो भारतीय सामाजिक और राजनीतिक चिंतन पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।
भारतीय पुनर्जागरण का स्वरूप-
बर्बर और धर्मान्ध मुसलमानों के अत्याचारों से पीड़ित होकर 14वीं शताब्दी में सभ्य एवं विद्वान यूनानी जब स्वदेश से भागकर इटली पहुँचे तो उनके प्रभाव से कला एवं साहित्य फिर से पनप उठे। इस प्रक्रिया को पुनर्जागरण कहा गया। अब इसके व्यापक अर्थ हो गये हैं जिनके अनुसार एक निश्चित विराम के पश्चात् विकास की नई दिशा में बढ़ने का नाम पुनर्जागरण है। इस नई दिशा का निर्माण कही पूर्व मान्यताओं के द्वारा होता है तो कहीं बाह्य आदर्श के द्वारा प्रगति और विकास की आकांक्षा ही पुनर्जागरण को जन्म देती है परन्तु आगे बढ़कर भी प्राचीन से सम्बन्ध बना रहता है। प्राचीन से पूर्ण सम्बन्ध विच्छेद सम्भव नहीं है। ऐसा करने से तो एक रचना ही उत्पन्न हो जायेगी जो पुनर्जागरण नहीं होगी। इस शब्द के सामान्य अर्थ में ही पूर्व की स्थिति निहित है। इसी प्रकार का भारतीय पुनर्जागरण 19वीं शताब्दी में आया। नवीन पाश्चात्य विचारों को भारतवासियों ने स्वीकार किया परन्तु उन्होंने भारतीय सांस्कृतिक सिद्धान्तों को पूर्णरूप से त्याग नहीं दिया।
पाश्चात्य पुनर्जागरण से भिन्नता-
भारतीय पुनर्जागरण यूरोपीय पुनर्जागरण से भिन्न था। जहाँ यूरोपीय पुनर्जागरण मुख्यतः बौद्धिक एवं कलात्मक था वहीं भारतीय पुनर्जागरण नैतिक एवं आध्यात्मिक तत्व लिये हुए था। धर्मान्ध क्रूर शासकों के काल में बहुत दिन तक भारतवासियों की नैतिक तथा आध्यात्मिक भावनाएँ दबी रहकर अब पाश्चात्य शिक्षा एवं चेतना के स्वस्थ सम्पर्क में आकर जाग गयीं थीं। यही भारतीय पुनर्जागरण था जो कदापि एकांगी न था। वह एशियाई पुनर्जागरण से भी पूरी तरह सम्बद्ध था। 18वीं तथा 19वीं शताब्दी औद्योगिक क्रान्ति के योरोप और एशिया पर एकदम विपरीत पड़े थे। यूरोप तो आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टि से सशक्त बना और एशिया में प्रत्येक क्षेत्र में पतन तथा दुर्बलता उत्पन्न हुई। आर्थिक- राजनीतिक-सामाजिक और सांस्कृतिक सभी दृष्टियों से एशिया पिछड़ता गया और शक्तिहीन हो गया। परिणामस्वरूप यूरोपीय शक्तियों का एशिया पर प्रभुत्व स्थापित हो गया। जब समय बदला और अज्ञानता दूर होने लगी तो सन्तों तथा सामाजिक और राजनीतिक विचारों ने भारत को जगाकर पुनः स्थापित किया। इसमें स्वामी विवेकानन्द, राजा राममोहन राय, महर्षि दयानन्द, अरविन्द घोष, रवीन्द्र नाथ टैगोर, गोखले, तिलक, गाँधी, लाला लाजपत राय तथा विपिनचन्द्र पाल आदि का महत्वपूर्ण योगदान रहा।
राजनीतिक पुनर्जागरण में पाश्चात्य प्रभाव-
मुसलमान शासन के समय तक जो भारतीय प्रायः कूप-मण्डूक की स्थिति में रहे परन्तु भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना के उपरान्त विश्व के अन्य देशों से सम्पर्क बढ़ा परिणामस्वरूप भारतीय नेताओं, विचारकों और सुधारकों को पाश्चात्य संस्कृति व्यवहार तथा शिक्षा से कुछ सीखने का अवसर प्राप्त हुआ। विशेष रूप से ब्रिटेन की जो बातें उन्हें अच्छी लगीं उनका प्रचार उन्होंने भारत में चाहा। उनकी सर्वप्रथम माँग हुई कि भारत में ऐसी ही राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना की जाये जैसी ब्रिटेन में थी।
भारतीय पुनर्जागरण में पाश्चात्य सम्पर्क एवं ज्ञान का बहुत प्रभाव पड़ा। भारतीयों ने पश्चिम से दो बातें विशेषतया सीखीं। एक तो राजनीतिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली और दूसरे राष्ट्रवाद। उन्होंने ब्रिटेन की संसदात्मक प्रणाली को स्वीकार किया तथा प्रान्तीय स्वायत्तता एवं स्वराज की माँग की। राष्ट्रवाद का प्रारम्भ अधिक से अधिक और योग्यता के आधार पर सरकारी नौकरियों की माँग के रूप में हुआ। 1857 की क्रान्ति के पश्चात् ही सर्वप्रथम इस दिशा में कुछ प्राप्त हो सका। अंग्रेजों को कुछ सद्धि आयी और महारानी विक्टोरिया ने घोषणा की जिसमें उन्होंने वचन दिया कि भारतीयों को कानून के समक्ष बराबरी का दर्जा दिया जायेगा। इस घोषणा में धार्मिक स्वतंत्रता और समान अवसर के सिद्धान्त ‘राज्य की नीति के सिद्धान्त’ के रूप में स्वीकार किये गये। इस घोषणा से राजनीतिक पुनर्जागरण काल की गति को सहारा मिला। पुनर्जागरण का भारतीयों पर प्रभाव-भले ही ऐसा प्रतीत होता है कि पाश्चात्य सभ्यता का भारतीयों पर प्रभाव केवल नकारात्मक था परन्तु पाश्चात्य सभ्यता में अनेक मानवीय गुण थे और सभी अंग्रेज निरे स्वार्थी पशु नहीं थे। भारतीयों ने पाश्चात्य सभ्यता के अच्छे गुणों को स्वीकार किया, जिन कुछ सिद्धान्तों ने भारतीय संस्कृति को विनष्ट करना चाहा, भारतीय विद्वान चिन्तक उन हानिकारक सिद्धान्तों को हटाने तथा भारत के प्राचीन गौरव को स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहे। भारतीय पुनर्जागरण पर कुल मिलाकर जो पाश्चात्य प्रभाव पड़ा उसके कारण कुछ विद्वानों का मत था कि भारतीय पुनर्जागरण पश्चिमी सभ्यता का पोषित शिशु ही था। भारतीय पुनर्जागरण के फलस्वरूप भारतीयों को दो विशिष्ट तथ्यों का ज्ञान हुआ।
एक तो यह कि विज्ञान, कला, उद्योग एवं तकनीकी आदि क्षेत्रों में यूरोपीय देश भारत से बहुत आगे थे और दूसरा यह कि नैतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से भारत बहुत आगे था। यद्यपि नैतिकता तो भारत की तभी नष्ट हो गयी थी जब बाहर से आये मुट्ठी पर मुगलों को मिलकर खदेड़ने और नष्ट करने के स्थान पर बीरबल, टोडरमल जैसे बुद्धिमान तथा मानसिंह जैसे योद्धा उनके दरबारी होने में गर्व का अनुभव करते थे। यह तो भारत के दासता के दुर्भाग्य में भी एक सौभाग्य की रजत रेखा यह रही कि नये शासक इतने सभ्य और उदार थे कि जहाँ उनके द्वारा भारतीयों को एक ओर शिक्षा मिली और स्वयं को तथा समाज की स्थिति को समझने का सुयोग भी मिला और उन्होंने अपने विकास के लिए पाश्चात्य तरीके अपनाये। इसी पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप देश विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में चहुँमुखी उन्नति कर रहा है। इस प्रकार हम पाते हैं कि पुनर्जागरण के विविध रूपों, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक के सामने जो लक्ष्य उभरकर आये उसकी धीरे-धीरे पूर्ति होती दिखाई दे रही है।
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