स्वामी दयानन्द के राजनीतिक विचार, सामाजिक एवं धार्मिक विचार

स्वामी दयानन्द के राजनीतिक विचार
स्वामी दयानन्द के राजनीतिक विचार

स्वामी दयानन्द के राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक विचारों को स्पष्ट कीजिए।

स्वामी दयानन्द के राजनीतिक विचार

स्वामी दयानन्द जी न केवल समाज सुधारक थे अपितु राजनीतिक विचारों में भी उनका विशिष्ट स्थान था। उन्होंने समाज में दलितों एवं नारी उद्धार के लिए संघर्ष किया तथा पुराने समय से चली आ रही कुप्रथाओं का विरोध करके जनता में चेतना जागृत किया। उन्होंने स्वराज्य का नारा बुलन्द कर भारत की राजनैतिक स्वतन्त्रता की पृष्ठ भूमि तैयार की।

(1) प्रबुद्ध राजतंत्र- स्वामी दयानन्द के विचारों का समन्वय दृष्टिगत होता है। उन्होंने मनुस्मृति से राजतंत्र का सिद्धान्त ग्रहण किया। मनु का स्पष्ट चिन्तन था कि राजा को पूर्णतः धर्म के अधीन होना चाहिए। स्वामी जी के प्रबुद्ध राजतंत्र का आशय ऐसे शासन से है, जिसमें राजा मंत्रियों के परामर्श से शासन कार्य संचालित करता है। इस व्यवस्था में राजा की सत्ता पर नैतिक तथा धार्मिक प्रतिबन्ध लगे हुए होते हैं। मनुस्मृति के दर्शन के अनुयायी स्वामी दयानन्द ने राजा के निश्चित गुणों के होने की अनिवार्यता के प्रति संकेत करके राजतंत्र को मर्यादित ही नहीं, लोकतंत्रीय आधार भी प्रदान किया। राजा को जन इच्छा को सम्मान देकर राजतंत्र को प्रबुद्ध बनाया। इस तरह उन्होंने प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था के बीज वेदों से प्राप्त किये थे। उन्होंनें हमेशा इस बात का अनुरोध किया कि शासकों को आध्यात्मिक नेताओं के निर्देशन में कार्य करना चाहिए।

(2) लोकतंत्र के समर्थक- स्वामी दयानन्द लोकतंत्रवादी विचारक और प्रजातांत्रिक आदर्शों पर आधारित राजनीति के समर्थक थे। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में लोकतंत्र का समर्थन करते हुए उससे सम्बन्धित निर्माण, स्वरूप शासन और न्याय से सम्बन्धित धारणाओं की विवचेना की है। उनका लोकतंत्र प्रत्येक वर्ण जाति, वर्ग, धर्म एवं लिंग के लिए समानता के आदर्श के रूप में है। उन्होंने स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के आधारभूत लोकतांत्रिक सिद्धान्तों का समर्थन किया। उनका लोकतंत्र व्यक्ति की उपेक्षा नहीं करता, वरन् व्यक्ति को स्वतंत्र विकास का अवसर प्रदार करता है। लोकतंत्रीय व्यवस्था के अन्तर्गत जो आदर्श दयानन्द जी ने प्रस्तुत किये उस सन्दर्भ में डा. वीपी वर्मा ने कहा है कि- ” जिस आदर्श राज व्यवस्था की रूपरेखा उन्होंने प्रस्तुत की उसकी सरकार के सभी स्वीकृत और विविध अंगों के निर्माण के लिए उन्होंने निर्वाचन के लोकतांत्रिक सिद्धान्त को स्वीकार किया।”

“स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश में स्पष्टतः लिखा है कि- “राज्य दो, तीन, पांच और सौ ग्रामों के बीच एक प्रशासकीय कार्यालय होना चाहिए, जिसमें आवश्यकतानुरूप योग्य राजकीय कर्मचारी होने चाहिए, जो आवश्यकता के अनुसार राज्य के सम्पूर्ण कार्यों को पूरा करे। हर एक ग्राम में एक प्रधान पुरुष रखे, दस ग्रामों के ऊपर दूसरा बीस ग्रामों के ऊपर तीसरा, सौ ग्रामों के ऊपर चौथा और हजार ग्रामों के ऊपर पांचवीं पुरुष रखें। प्रशासन की इन समस्त इकाइयों को एक दूसरे के साथ जोड़ दिया जाये। यह विचार वस्तुतः मनु द्वारा प्रतिपादित प्राचीन राज्य परिषद से लिया गया है।

(3) राज्य का कल्याणकारी स्वरूप- स्वामी दयानन्द के राज्य सम्बन्धी विचार एक पुलिस राज्य की कल्पना पर आधारित न होकर, पूर्णतः लोककल्याणकारी है। राज्य के कार्यों में अपाहिज अनाथ और समाज के निम्न वर्ग के व्यक्तियों के संरक्षण का समावेश उन्हें कल्याणकारी राज्य की धारणा के निकट ला देता है।

(4) अन्तर्राष्ट्रीयतावाद – स्वामी दयानन्द कट्टर राष्ट्रवादी व्यक्ति थे, लेकिन राष्ट्रवादी होते हुए भी उनेक हृदय में सम्पूर्ण विश्व के लिए भ्रातृत्व भाव एवं सद्भाव था। उनके अनुसार सभी धर्मों का शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व सम्भव है। वह धार्मिक एकता के आधार पर विश्व एकता के समर्थक थे। स्वामी दयानन्द पूर्व और पश्चिम की एकता में आध्यात्मिक नैतिक धरातल पर विश्वास रखते थे, क्योंकि उनमें मानवता और विश्व बन्धुत्व के प्रति अद्भुत लगन थी और उसकी पूर्ति के लिए कार्य करने में उन्हें खुशी होती थी। वे मानवतावाद के पुजारी ही नहीं, पोषक भी थे।

स्वामी दयानन्द के सामाजिक विचार

स्वामी दयानन्द सरस्वती को समाज सुधारक के रूप में ध्रुवतारा की संज्ञा प्रदान की गयी है। स्वामी जी के सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों ने देश के पुर्नजागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिन्दी समाज में व्याप्त कुरीतियों, अन्धविश्वासों, पाखण्डों के विरुद्ध सर्वप्रथम आवाज स्वामीजी ने ही उठाई। उन्होंने भारतीय समाज एवं धर्म को पुर्नप्रतिष्ठित करने हेतु अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया। विपिन चन्द्र पाल का कहना है कि स्वामी दयानन्द का आन्दोलन केलव धर्म सुधार आन्दोलन नहीं था अपितु समाज सुधार आन्दोलन का था। स्वामी दयानन्द जी का मानना था कि समाज सुधार के द्वारा ही राजनीतिक चेतना की जागृति और राष्ट्रीयता का विकास किया जा सकता है। उनके अनुसार सामाजिक सुधार निम्न के द्वारा सम्भव है।

(1) कुप्रथाओं का विरोध- यद्यपि स्वामी जी वैदिक धर्म के प्रबल समर्थक एवं अनुयायी थे परन्तु उन्होंने सर्वदा कुप्रथाओं का विरोध तथा ढोंग पाखण्डों का तिरस्कार किया। स्वामी जी दहेज-प्रथा बाल-विवाह जैसे अन्य समाजिक कुप्रथाओं का प्रबल विरोध किया। वे दहेज प्रथा को समाज के लिए अभिशाप समझते थे। उनका विचार था कि 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की तथा 25 वर्ष से कम उम्र के आयु वाले लड़कों का विवाह नहीं करना चाहिए। वे वर-कन्या के विवाह सम्बन्धी बातों में भागीदार के पक्षधर थे।

(2) जाति प्रथा का विरोध- स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जाति प्रथा को समाज के लिए अभिशाप समझते थे। स्वामी दयानन्द ने अस्पृश्यता के विरुद्ध आन्दोलन किया और जाति प्रथा के कठोर बन्धनों को ढीला करने पर बल दिया। उन्होंने कहा कि जाति प्रथा की सख्ती से हिन्दू समाज का निम्न वर्ग अपमानित होकर अन्य धर्मों की ओर आकर्षित हो रहा है, जो विघटन का कारण बनेगा। अतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि इस वर्ग को अन्य वर्गों के समान अधिकार एवं सुविधायें दी जायें और समाज से ऊँचे नीच तथा छुआ-छूत का अन्त कर दिया जावे। स्वामी जी ने जाति प्रथा के उन्मूलन के लिए आर्य समाज की स्थापना की। उनका दृढ़ मत था कि समाज को सशक्त और उन्नत बनाने हेतु जाति प्रथा एवं अस्पृश्यता को नष्ट करना ही होगा। इस सम्बन्ध में महात्मा गांधी का कथन है कि “स्वामी दयानन्द की बहुत सी देनों में उनकी अस्पृश्यता के विरुद्ध
घोषणा निःसन्देह एक महानतम देन है।”

(3) मूर्तिपूजा के विरोधी- स्वामी दयानन्द मूर्ति पूजा के विरोधी थे। उनका मानना था कि मूर्ति पूजा ने हो अन्धविश्वास एवं पाखण्ड को जन्म दिया है। उनका कहना था कि- “यद्यपि मेरा जन्म आर्यावर्त में हुआ है और मैं यहाँ का निवासी हूँ, लेकिन मैं पाखण्ड का विरोधी हूँ और यह मेरा व्यवहार अपने देश वासियों तथा विरोधियों के साथ समान है। मेरा मुख्य उद्देश्य मानव जाति का उद्धार करना है।

स्वामी दयानन्द ने यह अनुभव किया था कि मूर्ति पूजा ही हिन्दू समाज में प्रविष्ट विभिन्न प्रकार के अन्यविश्वास उसकी गरिमा का विनाश कर रही है। उन्होंने मूर्ति पूजा को वेद विरुद्ध और धर्म विरुद्ध बताया। उन्होंने मूर्ति पूजा के समर्थकों को शास्त्रार्थ में पराजित किया और बहुत से सनातनी व्यक्ति उनके शिष्य बन गये। वे कहा करते थे कि “वेदों में मूर्ति पूजा की आज्ञा नहीं है इसलिए उनके पूजन से आज्ञा भंग का दोष है। इसलिए इसे धर्म-विरोधी कृत्य मानता हूँ।”

(4) महिला अधिकारों के समर्थक- स्वामी दयानन्द ने महिलाओं की गरिमा का जोरदारी से समर्थन किया। उन्होंने इस बात का विरोध किया कि नारी पुरुष के समान नहीं क्योंकि प्रकृति ने ही उसे शरीर स्वभाव, शक्ति की दृष्टि से पुरुष से भिन्न बनाया है। यह भिन्नता उसे पुरुष से कमजोर बनाती है। स्वामी दयानन्द का मन मातृ शक्ति के प्रति आदर और भक्ति से परिपूर्ण था। वह स्त्री जाति की स्वतंत्रता के पक्षधर थे। स्वामी जी भारतीय महिलाओं का पुनरुत्थान करना चाहते थे, अतः उन्होंने महिलाओं की शिक्षा का जोरदार समर्थन किया। स्वामी दयानन्द ने वैदिक काल की भांति स्त्रियों को समाज में उच्च स्थान प्रदान करने का समर्थन किया और महिलाओं के प्राचीन गौरव की दुहाई दी।

स्वामी दयानन्द नारी के उत्थान के लिए वेदों में निहित यह श्लोक दोहराया करते थे। “यत्र नर्यास्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।” अर्थात् जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं। उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज ने अनेक नगरों में आर्य-कन्या स्कूलों की स्थापना की। थी जिनमें लड़कियों के पढ़ने की व्यवस्था ही नहीं हुई, वरन् स्त्री शिक्षा का प्रसार हुआ। स्त्रियों से सम्बन्धित अनेक कुप्रथाओं के विरुद्ध आन्दोलन चलाकर आर्य समाज ने स्त्रियों को समाज में उच्च स्थान दिलाया।

(6) हिन्दी (आर्य भाषा) के समर्थक- स्वामी दयानन्द का जन्म गुजरात में हुआ था। गुजराती होते हुए भी उन्होंने हिन्दी (आर्य भाषा) का समर्थन किया। उन्होंने अपने सभी ग्रन्थों की रचना हिन्दी भाषा में ही की। हिन्दी भाषा को वह राष्ट्रीय भाषा के रूप में देखना चाहते थे। स्वामी दयानन्द ने हिन्दी ग्रन्थों की रचना कर हिन्दी भाषा को प्रोत्साहन दिया। राष्ट्रीय आन्दोलन में भी। राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को स्थापित कराने का श्रेय स्वामी दयानन्द को ही जाता है। समय के साथ हिन्दी राष्ट्रवादियों को हिन्दी भाषा के प्रयोग करने के लिए बाध्य किया। राष्ट्रीय आन्दोलन के पुरोधा महात्मा गांधी ने भी स्वामी जी के विचारों से प्रेरणा लेकर अपने समस्त ग्रंथों की रचना हिन्दी भाषा में ही की।

स्वामी दयानन्द के धार्मिक विचार

स्वामी दयानन्द भारत को धर्ममय बनाना चाहते थे। वह इंग्लैण्ड के लिए तो राजनीति को सामाजिक जीवन का आधार मानने को तैयार थे, परन्तु वे भारतीय समाज को राजनीति से पृथक रखना चाहते थे। उनकी कथन था, “भारत में सामाजिक सुधार करने के बजाय धार्मिक सुधार करने चाहिए।” वे आध्यात्मवाद को भारतीय सामाजिक जीवन की आधारशिला बनाना चाहते थे।

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