19वीं शताब्दी में स्त्रियों की दशा पर संक्षिप्त निबन्ध लिखिए।

19वीं शताब्दी में स्त्रियों की दशा पर संक्षिप्त निबन्ध लिखिए।
19वीं शताब्दी में स्त्रियों की दशा पर संक्षिप्त निबन्ध लिखिए।

19वीं शताब्दी में स्त्रियों की दशा 

19वीं सदी के प्रारम्भ में स्त्रियों की दशा दयनीय थी। पूरी तरह पर्दे में रहने के कारण उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का ह्रास हो गया था। उन दिनों आमतौर पर असुरक्षा और अपराध की स्थिति थी, जिसके कारण पर्दा-प्रथा का अधिक कड़ाई से पालन होने लगा। हिन्दू समाज में बाल विवाह, बहु-विवाह, विधवाओं से जबर्दस्ती ब्रह्मचर्य का पालन कराना अर्थात विधवा विवाह पर प्रतिबन्ध और विधवाओं को उनके पति की चिता पर जला देना आम बात थी। उन्नीसवीं सदी में कानून और सुधार आन्दोलनों द्वारा इन प्रथाओं को चुनौती दी गयी।

1. कन्या वध-

लड़कियों को जन्मते ही मार डालने की प्रथा ( गुप्त रूप से) प्रचलित थी। बनारस के ब्रिटिश रेजीडेन्ट जोनाथन डंकन ने इस प्रथा का पता लगाया। काठियावाड़ के कच्छ जाडेजा वर्ग के लोगों में यह प्रधा विद्यमान थी। इलाहाबाद के पास कछवाहा राजपूतों में भी इसका प्रचलन था। चौहान राजपूत और मैनपुरी के अहीरों में भी यह अपराध नियमित रूप से प्रचलित था। पंजाब में बालिका वथ का काफी प्रचलन था। राट कबीले के कुछ मुसलमानों में भी यह प्रथा प्रचलित थी। बालिका वध के अलग-अलग कारण थे चौहानों में यह मुख्यतः आर्थिक कारणों में थी, जिस पर अज्ञानपूर्ण अभिमान का पर्दा पड़ा था। वे अपनी बच्चियों को मार डालते थे, क्योंकि लड़की के विवाह पर बहुत बड़ी धनराशि खर्च करना अनिवार्य था। वेदियों के लिए यह एक सामाजिक गौरव की बात थी कि अपनी लड़की अपने से छोटी जाति में न दी जाय। इस प्रथा का आदेश सबसे पहले गुरू नानक के पौत्र धर्मचन्द वेदी ने दिया था। बाद में इस पर अन्धविश्वास का रंग जम गया तथा भावी पीढ़ियों के लिए एक सामाजिक प्रथा बन गई। राजपूताना में इस प्रथा का मुख्य कारण राजपूत सरदारों का यह निश्चय था कि वे अपनी लड़कियों को 10 साल की आयु से ज्यादा तक अविवाहित नहीं रहने देंगे। इस भावना के कारण लड़कों के पिता विवाह की अनुमति देने के लिए धन की मांग करते थे। इसलिए लड़कियों के विवाह के समय उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों से बचने के लिए आमतौर पर उन्हें मार डाला जाता था।

2. बाल विवाह-

बाल-विवाह की प्रथा ने स्त्रियों की स्थिति को और दयनीय बना दिया था। इस प्रथा को प्रचलित करने में विभिन्न सामाजिक तथ्यों का योगदान था। जहाँ के मौसम का जिस प्रकार का प्रभाव पड़ता है, उसी के अनुसार ‘सामाजिक प्रणालियों का नियमन हुआ। गरम मौसम वाले इलाकों में शारीरिक विकास जल्दी होता था और समाज अपना नैतिक स्तर बनाये रखने की चिन्ता के कारण लड़कियों के कौमार्य पर विशेष महत्व देता था। विवाह योग्य आयु होने से पहले ही लड़कियों का विवाह करके लोग इस बात से निश्चिन्त हो जाते थे कि समाज की नैतिक शुद्धता बनी रहेगी। इसके अलावा कुछ आर्थिक कारण भी थे। गरीब लोगों के लिए लड़की अपने माता-पिता पर बोझ होती थी, जबकि अपने पति के परिवार के लिए वह उपयोगी थी, क्योंकि वहाँ उसे रसोईघर संभालना पड़ता था। बाल विवाह को प्रोत्साहन देने के लिए हिन्दू संयुक्त परिवार प्रणाली भी कम जिम्मेदार न थी। दादा-दादी या नाना-नानी या बड़े-बूढ़ों की यही इच्छा रहती थी कि वे अपने नाती-पोतों को विवाहित देखें। मध्य युग के दौरान बाल-विवाह प्रथा काफी प्रचलित थी। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही इसका पालन करते थे। बहुत छोटी आयु में माँ बन जाना, पीले जर्द और कमजोर बच्चों से घिरे रहना, ऐसी परिस्थितियाँ थी, जिनमें भारतीय महिला दुर्दशा और व्यथा की जीती-जागती तस्वीर थी।

3. बहु-विवाह-

बहु विवाह एक अन्य पुरानी सामाजिक बुराई थी, जो हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों में विद्यमान थी। कालान्तर में यह बुराई सभी सीमायें लाँघ गयी। बहु-विवाह की प्रथा समाज के मुख्यतः अमीर और उच्च वर्गों तक सीमित थी। अपनी सम्पन्नता और सम्पत्ति के साथ अमीर लोग एक से अधिक पत्नियाँ रखने और अन्य व्यभिचारों के खर्च उठा सकते थे। हरम बनाने और बहुत सी पत्नियाँ रखने में शर्म या दुख की बात नहीं थी, अपितु यह गौरव तथा सामाजिक प्रतिष्ठा की बात मानी जाती थी। इस काल में अर्थात् 19वीं सदी के प्रारम्भ में बहु-विवाह का सबसे अधिक चलन बंगाल में था और वह भी ब्राह्मणों में। ब्राह्मणों ने विवाह को आजीविका का साधन या एक व्यवसाय बना लिया था, वे बहुत से विवाह करके लाभ प्राप्त करने लगे। उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ तक बहु-विवाह की इस प्रथा ने विकराल रूप धारण कर लिया। एक कुलीन तीन-चार स्त्रियों के साथ विवाह कर सकता था। अपने जीवन काल में कुछ कुलीनों ने तो दर्जनों पत्नियाँ यहाँ तक कि 100 से भी अधिक रख छोड़ी थीं। ऐसे माता-पिता भी थे, जो एक ही कुलीन को अपनी सभी लड़कियों विवाह में दे देते थे। कुलीनों के लिए विवाह योग्य आयु की कोई अधिकतम सीमा नहीं थी। वह किसी भी आयु में शादी विवाह कर सकता था। इसी प्रकार, किसी व्यक्ति की दुलहिने छोटी से छोटी आयु की भी हो सकती थीं।

इससे भी घृणित प्रथा यह थी कि कुलीन पति को अपनी बहुत सारी पत्नियों का खर्च उठाने की जरूरत नहीं थी। ये तथाकथित पत्नियाँ अपने माता-पिता के घरों में ही रहती थीं, लेकिन कभी-कभी उनका पति आकर इन अभागे सास-ससुर से कुछ धन इकट्ठा कर लेता था। इस प्रकार की प्रथा के परिणाम भयानक थे, इसने सामाजिक अनैतिकता और व्यभिचार को बढ़ावा दिया। धर्म की ओर से किसी प्रकार के समर्थन के बिना यह कुलीनवाद एक सामाजिक अंधविश्वास में विकसित हो गया और इससे अनगिनत स्त्रियों का जीवन नष्ट हुआ और साथ ही सारे समाज का भी पतन हुआ।

 बहु-विवाह से कई सामाजिक और पारिवारिक समस्यायें पैदा हुईं। इससे पारिवारिक अशान्ति तथा आर्थिक कठिनाइयों का सामना उन परिवारों को करना पड़ा। बहु-विवाह के फलस्वरूप पर्दा प्रथा को भी काफी बढ़ावा मिला।

विधवाओं के लिए ब्रह्मचर्य पालन- वैदिक काल के हिन्दू समाज में विधवाओं का विवाह कर दिया जाता था, परन्तु शनैः-शनैः यह प्रथा समाप्त हो गयी और विधवा विवाह को पाप समझा जाने लगा। विधवाओं से जबर्दस्ती ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कराना एक सामाजिक प्रथा बन गयी, जिसका उल्लंघन करने का साहस कोई बिरला व्यक्ति ही कर सकता था। विधवा जीवन उपवास, पूजा-पाठ, आराधना और अन्य धार्मिक कार्यों में बीतता था। शताब्दियों से हिन्दू-विधवाओं का जीवन इसी तरह का बना रहा। उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में बाल-विधवाओं की संख्या बढ़ती चली गयी। छोटी-छोटी लड़कियाँ, जिन्हें विवाह के समय अपने पति के बारे में कुछ पता ही नहीं था, उन अनजाने-अनदेखे व्यक्तियों की मृत्यु पर, विधवायें हो जाती थी। उनके लिए वैधव्य के नियम निरंकुश अत्याचार की एक संहिता थे। ऐसी विधवायें भी थीं, जिनकी आयु पाँच वर्ष से भी कम थी। इन विधवाओं को लोग अशुभ या अमंगलकारी समझते थे। घोर अज्ञान के कारण लोगों में यह विश्वास था कि उनके पारिवारिक दुर्भाग्य के लिए ये युवा विधवायें ही उत्तरदायी हैं। दैनिक जीवन में उन्हें कई तरह की सुविधाओं से वंचित रखा जाता था।

5. सती प्रथा-

कई असंगत सामाजिक रीतियों में, सबसे अस्वाभाविक प्रथा सती या मृतक पति की चिता पर हिन्दू विधवा को जला देने की थी। जिन यूरोपियों ने इस प्रथा का पता लगाया, उन्हें यह अत्यन्त घृणास्पद प्रतीत हुई। स्वर्ग प्राप्ति की आशा ही वास्तव में विधवाओं को इस चरम यातना के लिए प्रेरित करती थी। अन्धविश्वास के कारण ही पिता अपनी छोटी-छोटी लड़कियों तक को पति की चिन्ता पर बैठने के लिए बाध्य करते थे। समाज उन्हें जबर्दस्ती आत्मदाह के लिए बाध्य करता था। 19वीं सदी के प्रारम्भ में यह प्रथा काफी प्रचलित रही।

सुधारात्मक प्रयास- इस प्रकार धार्मिक अन्धविश्वास और अज्ञानतापूर्ण जीवन पद्धति ने इस काल को भारत के इतिहास का अन्धकारमय युग बना दिया था। परन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान भारत में समाज के नव निर्माण और धार्मिक विचारों को तर्कसंगत बनाने के लिए विभिन्न सुधार आन्दोलनों के एक के बाद एक दौर आने लगे। फलस्वरूप स्त्रियों की दशा में महत्वपूर्ण सुधार परिलक्षित हुए और उनका जीवन सुखद तथा प्रगतिशील हो गया। पुरुषों के साथ उनकी समानता के लिए प्रयत्न प्रारम्भ हुए और उन्हें राष्ट्र की भागीदारी में महत्वपूर्ण सहयोगी स्वीकार किया गया। इनमें पहला दौर उस आन्दोलन का था, जिसकी शुरुआत राजा राममोहन राय ने की थी।

राजा राममोहन राय और उनके ब्रह्म समाज ने बहु-विवाह, स्त्रियों की दुर्दशा और भयंकर सती प्रथा के विरुद्ध जनचेतना जाग्रत करने का प्रयत्न किया। अन्ततः सती प्रथा समाप्त हुई, जिसका श्रेय राजाराम मोहन राय को है। गर्वनर जनरल लॉर्ड बेंटिंक को भी इसका श्रेय है, जिनके समय में यह प्रथा समाप्त की गई। उन्नीसवीं सदी के मध्य में ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने विधवा विवाह के लिए अभियान चलाया। उन्हीं के प्रयत्नों से 26 जुलाई, 1856 को एक एक्ट पारित किया गया, जिसके अंतर्गत विधवा विवाह को कानून सम्मत बना दिया गया। महादेव गोविन्द रानाडे और उनके प्रार्थना समाज ने पुरुषों तथा स्त्रियों की विवाह की आयु को बढ़ाने (बाल-विवाह के विरुद्ध) विधवा पुनर्विवाह स्त्री शिक्षा, आदि की दिशा में सराहनीय कार्य किया।

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