स्वामी दयानंद सरस्वती के राज्य सम्बन्धी विचार

स्वामी दयानंद सरस्वती के राज्य सम्बन्धी विचार
स्वामी दयानंद सरस्वती के राज्य सम्बन्धी विचार

स्वामी दयानंद सरस्वती के राज्य सम्बन्धी विचारों की विवेचना कीजिए।

स्वामी दयानंद सरस्वती के राज्य सम्बन्धी विचार- स्वामी जी ने समाज एवं व्यक्ति दोनों के सम्बन्धों को निर्धारित करने में राज्य को एक महत्वपूर्ण संगठन माना। उन्होंने राज्य के प्रयोजन, संगठन, शक्ति, नियन्त्रण तथा राज्य की सुरक्षा आदि विषयों पर अपने विचारों का प्रतिपादन किया। राज्य सम्बन्धी स्वामी जी के विचार निम्न है-

(1) प्रबुद्ध अथवा लोक-कल्याणकारी राजतन्त्र का समर्थन- दयानन्द राज्य को व्यक्तिवादियों की तरह एक पुलिस राज्य ही नहीं वरन् समाजवादियों की तरह से एक लोक-कल्याणकारी संगठन मानते थे जिसका कार्य-क्षेत्र व्यक्ति तथा समाज के भौतिक, नैतिक और आत्मिक उत्थान तक विस्तृत है। मन कौटिल्य आदि प्राचीन भारतीय चिन्तकों के समान “अप्राप्त की प्राप्ति, प्राप्त का संरक्षण, संरक्षित का सवर्द्धन और संवर्जित की पात्रता के अनुरूप समाज में न्यायसंगत वितरण” को दयानन्द राज्य के मूल उद्देश्य के रूप में प्रतिपादित करते हैं। वे राज्य प्रमुख वा राजा को एक पिता के समान अपनी प्रजा का पालन, शिक्षा के माध्यम से उसका बौद्धिक उत्थान, कृषि, वाणिज्य-व्यवसाय की प्रगति के माध्यम से आर्थिक समृद्धि, आन्तरिक सफत व्यवस्था की स्थापना तथा बाह्य संकटों से उसकी रक्षा और प्रजा को धर्मानुसार आचरण हेतु प्रेरित करने के लिए, ताकि उसका नैतिक और आत्मिक उत्थान हो सके, उत्तरदायी मानते थे। इन विभिन्न जनहितकारी कार्यों को सम्पन्न करने वाला राजा कोई सुयोग्य व्यक्ति ही हो सकता है। अतः दयानन्द द्वारा प्रतिपादित ‘प्रबुद्ध राजतन्त्र वंशानुगत चरित्र का ही नहीं था वरन निर्वाचन- आधारित चरित्र का था। वी.पी. वर्मा के अनुसार वेदों में जिस राजतन्त्र का वर्णन है, वह एक निर्वाचित राजतन्त्र है। वहीं से प्रेरणा ग्रहण करके दयानन्द ने अपने प्रबुद्ध राजतन्त्र का सिद्धान्त ग्रहण किया तथा शासन संचालन हेतु जनता द्वारा निर्वाचित राज्य के तीनों अंगों- राजार्यसभा (कार्यपालिका), विधार्यसभा (व्यवस्थापिका) तथा धर्मार्थसभा (न्यायपालिका) के सदस्यों में से जो सबसे योग्य और बुद्धिमान चतुर सदस्य हो, उसे ही राजा अथवा अध्यक्ष के रूप में इन सभाओं के सदस्यों द्वारा निर्वाचित कर लिया जाये। ऐसे निर्वाचित राज्याध्यक्ष को दयानन्द का यह निर्देश था कि इन सभाओं के मतानुसार तथा नैतिक और आत्मिक नेताओं के निर्देशानुसार राज्य कार्य का संचालन करना चाहिए।

(2) अवरोध और सन्तुलन के सिद्धान्त का प्रतिपादन- दयानन्द ने ने शासकीय निरंकुशता के प्रतिकार हेतु ‘अवरोध और सन्तुलन’ के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और यह निर्धारित किया कि राजा को सभाओं के अधीन इन तीनों सभाओं को अपने सुचारु रूप से उत्तरदायित्वों के निष्पादन के लिए राज्याध्यक्ष के रूप में राजा के अधीन और राजा तथा सभाओं को प्रजा के अधीन रहकर कार्य करना चाहिए। इसी प्रकार प्रजा की निरंकुशता को नियन्त्रि करने के लिए उनके द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि प्रजा को राजार्यसभा अर्थात कार्यपालिका द्वारा निर्णीत विधियों के प्रति | आज्ञापालन का भाव रखना चाहिए तथा उन्हीं के अनुसार कार्य करने हेतु सदा तत्पर रहना चाहिए। इस प्रकार दयानन्द ने अवरोध और सन्तुलन की व्यवस्था के माध्यम से शासकीय निरंकुशता के नियन्त्रण की एक ऐसी परिपक्व व्यवस्था की जिससे वे अपने-अपने क्षेत्र में जनहित के अनुसार स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करते हुए भी एक दूसरे के द्वारा अपने क्षेत्र का अतिक्रमण कर एक दूसरे के क्षेत्र में अवांछित रूप से हस्तक्षेप को रोका जा सके अर्थात् उसे निरंकुश होने से रोका जा सके तथा अन्ततः उन सभी शासकीय अंगों पर प्रजा का सक्रिय नियन्त्रण स्थापित किया जा सके। इस प्रकार दयानन्द द्वारा ‘अवरोध और नियन्त्रण’ का सिद्धान्त शासकीय तथा जन-निरंकुशता दोनों को रोकने हेतु एक समर्थ सिद्धान्त के रूप में प्रतिपादित किया गया जिसका प्रचलन हमें आधुनिक समय में अमेरिका सहित कई देशों में दृष्टिगत होता है।

(3) विधि के शासन का समर्थन- दयानन्द निरंकुश शासन के विरोधी और धर्म-सम्मत विधि के शासन के समर्थक थे। नग्न शक्ति को वे शासन का आधार नहीं मानते थे। नग्न शक्ति के आधार पर संचालित राज्य उनके अनुसार एक अच्छा और जनहितकारी राज्य नहीं माना जा सकता। उनके अनुसार वही राज्य उचित और अच्छा है जिसका शासन धर्म-आधारित विधि के अनुसार संचालित होता है। भौतिक शक्ति राज्य का सिर्फ एक आधार है, वह एकमात्र आधार नहीं है और न ही हो सकता है। इसके आधार पर राजा अपनी प्रजा से अपने आदेशों का पालन की अपेक्षा नहीं कर सकता। इस दृष्टि से उनका मत था कि भौतिक शक्ति, प्रबुद्ध विवेक पर आधारित विधि तथा न्याय तीनों मिलकर ही राज्य की सम्प्रभुता की अभिव्यक्ति करते हुए, उसको उचित आधार प्रदान करते हैं।
(4) प्रशासन के विकेन्द्रीकृत स्वरूप का समर्थन- एक राज्य के प्रशासन हेतु दयानन्द ने उसके विकेन्द्रीकृत स्वरूप का समर्थन किया है। मनुस्मृति से इस दृष्टि से प्रेरणा और मार्गदर्शन ग्रहण करते हुए उन्होंने राज्य को ‘ग्रामों के एक संघ’ के नाम से पुकारा है। मनुस्मृति के अनुसार उन्होंने राज्य-प्रशासन को ग्रामों की एक श्रृंखला के रूप में विकेन्द्रित आधार पर संचालित किये जाने का सुझाव दिया है। अपने ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में उन्होंने व्यवस्था दी है कि दो, तीन, पाँच और सौ ग्रामों के पीछे एक प्रशासनिक मुख्यालय की स्थापना होनी चाहिए। इस व्यवस्था के अन्तर्गत प्रशासनिक कार्य के सुसंचालन हेतु योग्य अधिकारियों की नियुक्ति होनी चाहिए तथा एक अधिकारी ग्राम के मुखिया के रूप में कार्य करे, एक अन्य अधिकारी दस ग्रामों के मुखिया के रूप में कार्य करे। तीसरा अधिकारी बीस ग्रामों के पीछे हो, चौथा सी ग्रामों और पाँचवां एक हजार ग्रामों के पीछे हो। एक ग्राम का अधिकारी दस ग्रामों के अधिकारी को प्रतिदिन अपने ग्राम की शान्ति एवं व्यवस्था के सम्बन्ध में प्रतिवेदन दे। इसी तरह इस ग्राम का अधिकारी अपने अधीन ग्रामों की व्यवस्था के बारे में अपने प्रतिवेदन बीस ग्राम के अधिकारी के सम्मुख प्रस्तुत करे। इसी तरह बीस ग्रामों का अधिकरी सौ ग्रामों के अधिकारी को, सी ग्रामों का अधिकारी, हजार ग्रामों के अधि बरी को और हजार ग्रामों का अधिकारी दस हजार ग्रामों के अधिकारी को अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करे। दस हजार ग्रामों का अधिकारी अपना प्रतिवेदन उस सभा के सम्मुख प्रस्तुत करे जो एक लाख ग्रामों तथा कस्बों पर शासन के लिए उत्तरदायी है। ऐसी सारी सभाएं उस सर्वोच्च परिषद को अपना प्रतिवदेन प्रस्तत करे जो सम्पूर्ण राज्य का प्रतिनिधित्व करती है। साथ ही प्रत्येक दस हजार ग्रामों पर दो ऐसे अधिकारी भी हो जिनमें से एक उस सभा के सभापति के रूप में कार्य करे तथा दूसरा राजा के सभी अधिकारियों के कार्यों का भ्रमण करके निरीक्षण करे। मनुस्मृति से प्रेरित होकर इस प्रकार दयानन्द ने उस विकेन्द्रीकृत ग्राम-स्वराज्य की कल्पना प्रस्तुत की जो बाद में जाकर भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के शीर्ष नेता महात्मा गांधी के द्वारा प्रतिपादित स्वावलम्बी ‘ग्राम-स्वराज्य’ की प्रेरणा का मुख्य आधार बनी।

(5) योग्य प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति का आग्रह- राज्य प्रशासन के सुसंचालन हेतु दयानन्द द्वारा योग्य अधिकारियों की नियुक्ति पर जोर दिया गया। उनका मत था कि विधि व्यवस्था के सफल निर्वाह, प्रजा के कल्याण हेतु, विभिन्न जनहितकारी गतिविधियों के आयोजन की दृष्टि से तथा शान्ति, सुरक्षा तथा न्याय प्रशासन आदि की सुव्यवस्था के लिए समुचित संख्या में सुयोग्य अधिकारी नियुक्त किये जाने चाहिए तथा उनके उत्तरदायित्वों और कार्य-क्षेत्र को भली-भाँति परिभाषित किया जाना चाहिए। उन्होंने प्रशासकीय अधिकारियों की योग्यता को निर्धारित करते हुए उनके चरित्र में इस दृष्टि से ज्ञान, पवित्रता, निरालस्य, निष्ठा तथा प्रजाहित के प्रति संवेदनशीलता को विशेष महत्व दिया तथा ऐसे चरित्रवान व्यक्तियों को ही अधिकारियों के रूप में नियुक्त किये जाने की आवश्यकता पर विशेष बल दिया। इसी प्रकार दयानन्द ने राज्य की तीनों सभाओं, राजार्यसभा, विधार्यसभा तथा धर्मार्यसभा में विवेकहीन, अज्ञानी और अकुशल व्यक्तियों की नियुक्ति का पूर्ण निषेध किया है। उन्होंने स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया कि हजारों अज्ञानी व्यक्तियों के मत की तुलना में धर्म-ज्ञान से सम्पन्न एक व्यक्ति का मत अधिक महत्वपूर्ण होता है। इन विभिन्न सभाओं के सदस्यों के लिए योग्यता निर्धारित करते हुए उन्होंने उनके हेतु जितेन्द्रियता, साहस, पुरुषार्थ तथा समस्त विद्याओं के समुचित ज्ञान आदि को आवश्यक माना है तथा साथ ही उन्होंने उनको कामजन्य एवं क्रोधजन्य व्यसनों से मुक्त रहने का परामर्श दिया है। कुल मिलाकर स्वामी दयानन्द की दृष्टि से यह परिपक्व मत था कि चारित्रिक दृष्टि से सुदृढ़ और हर दृष्टि से योग्य व्यक्तियों को ही शासकीय एवं प्रशासकीय पदों पर नियुक्त किया जाना चाहिए।

(6) न्याय तथा दण्ड सम्बन्धी विचार- स्वामी दयानन्द यद्यपि वैयक्तिक जीवन में अहिंसा के पक्षधर थे लेकिन महात्मा गांधी की तरह राज्य के सन्दर्भ में निरपेक्ष अहिंसा का समर्थन न करके उन्होंने सापेक्ष अहिंसा का समर्थन करते हुए उसके द्वारा शान्ति और व्यवस्था को बनाये रखने तथा उसको भंग करने वाले अपराधियों के लिए उचित दण्ड की व्यवस्था किये जाने के मत का प्रतिपादन किया है। मनुस्मृति से प्रेरित होकर दण्ड को ही राज्य तथा शासन का पर्याय माना है। उन्होंने मत प्रकट किया है कि अपराध करने पर एक व्यक्ति को दण्डित किया ही जाना चाहिए, ताकि भविष्य में होने वाले अपराधों पर अंकुश लगाया जा सके। उन्होंने राज्य तथा समाज में न्याय स्थापना हेतु दण्ड व्यवस्था को अनिवार्य बताया। धर्मानुसार न्याय कार्य सम्पन्न करने हेतु दयानन्द ने ‘धर्मार्थसभा’ की स्थापना कर उसके माध्यम से धार्मिक कानून के ज्ञाता, विधिवेत्ताओं द्वारा न्याय कार्य किये जाने पर बल दिया है। यह ‘धर्मार्थसभा’ न्यायपालिका का ही दूसरा रूप है। दयानन्द ने निष्पक्ष न्याय हेतु पूर्ण सावधानी बरते जाने पर जोर देते हुए अन्याय करने वाले न्यायाधीशों को भी दण्डित किये जाने को उचित ठहराया है तथा इस हेतु उन्हें उदाहरणात्मक दण्ड दिये जाने की संस्तुति की है।

(7) लोकतन्त्र का समर्थन- स्वामी दयानन्द ने यद्यपि राजतन्त्र का समर्थन किया है, लेकिन उनका राजतन्त्र वंशानुगत चरित्र का नहीं है, उसकी तीनों सभाओं- राजार्यसभा, विधार्यसभा एवं धर्मार्थसभा के सदस्यों का ही निर्वाचन नहीं होता है वरन् इन्हीं सभाओं के सभासदों द्वारा राज्य के सर्वोच्च शासन अर्थात राजा का भी निर्वाचन किये जाने की व्यवस्था की गयी है। उनके द्वारा स्थापित ‘आर्य समाज’ नामक संगठन में भी सभी पद निर्वाचन के माध्यम से ही भरे जाते हैं। निर्वाचन-प्रथा दयानन्द के राजनीतिक विचारों के एक प्रमुख लक्षण का निर्माण करती है। यही नहीं, इन सभाओं के सभासदों और उनके द्वारा निर्वाचित राजा के लिए उन्होंने यह अनिवार्य कर दिया है कि उनके सारे कार्य और निर्णय जन-अनुमोदित होने चाहिए अर्थात उन्हें अपने कार्यो के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखकर दयानन्द ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में कहा है कि “राजार्यसभा, विधार्यसभा तथा धर्मार्थसभा के ज्ञानवान और चरित्रवान सभासद तथा उनके द्वारा उनमें सबसे अधिक योग्य निर्वाचित शासक को मुखिया मानकर समस्त उन्नति हेतु कार्य करें। तीनों सभाओं की सम्मति से राजनीति के उत्तम नियमों के अधीन रहकर सब लोग कार्य करें तथा सभी के हितकारी कार्य करें तथा वे स्वहित या स्वार्थ प्रेरित कार्यों को करने में परतन्त्र और सर्वहितकारी कार्यों को करने में स्वयं को स्वतन्त्र अनुभव करें।” इस प्रकार प्रारम्भ से अन्त तक राज्य के विभिन्न शासकीय अधिकारियों के निर्वाचन की तथा उनके द्वारा जनहित कार्यों को किये जाने की अनिवार्यता की और उन्हें जन अनुमोदन प्राप्त होने की व्यवस्था करके स्वामी दयानन्द ने एक पूर्ण जनतान्त्रिक तथा लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना का समर्थन किया।

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