महादेव गोविन्द रानाडे के ऐतिहासिक तथा आर्थिक विचारों की समीक्षा कीजिए।
रानाडे एक मेधावी व्यक्ति थे, जीवन में उनके कार्यक्षेत्र भिन्न रहे। वे एक आधुनिक ऋषि थे और उनकी मेधा विशाल तथा व्यापक थी। वे ऐसे गुरु थे जिन्होंने सामाजिक मुक्ति, आर्थिक प्रगति, सांस्कृतिक विकास तथा राष्ट्रीय एकता का उपदेश दिया। एक सन्देशवाहक के रूप में उन्होंने आत्म त्याग तथा सतत् अध्यवसाय का सन्देश दिया है। उन्होंने राष्ट्र के भौतिक तथा नैतिक कल्याण के आदर्श का बिगुल बजाया था। वे चाहते थे कि पूर्व के मूल्यों तथा मान्यताओं और पश्चिम की राजनीतिक तथा आर्थिक विचारधारा का समन्वय किया जाए। भारतीय इतिहास तथा राजनीति में रानाडे देशभक्ति के सन्देशवाहक थे और उन्होंने स्वतंत्रता, . सामाजिक प्रगति तथा वैयक्तिक चरित्र की पुनः स्थापना का उपदेश दिया। इस प्रकार वे उदात्त भारतीय राष्ट्रवाद के वैचारिक प्रस्तोताओं और गुरुओं में से थे।
ऐतिहासिक विचार
रानाडे ने भारतीय इतिहास का गंभीर अध्ययन किया था और वे भारतीय इतिहास का भारतीय दृष्टिकोण से निर्वचन करना चाहते थे। उनके विचार में भारत का इतिहास असम्बद्ध घटनाओं का विवरण मात्र नहीं है बल्कि उसमें गंभीर नैतिक सन्देश निहित है। उन्होंने भारतीय इतिहास में मराठों की भूमिका की नये ढंग से व्याख्या की है। 1900 में उन्होंने अपना ‘राइज आव दि मराठा पावर’ शीर्षक महत्वपूर्ण रचना प्रकाशित की। उन्होंने इस मत का खण्डन किया कि मराठों का उत्कर्ष सैनिक तथा राजनीतिक ढंग का आकस्मिक तथा अस्थायी विस्फोट था। उन्होंने मराठा इतिहास के आध्यात्मिक तथा नैतिक आधारों का वर्णन किया। इस कार्य में उन्होंने गम्भीर बुद्धिमत्ता तथा महाराष्ट्र के प्रति उचित देश भक्ति का परिचय दिया। शिवाजी के आदर्श चरित्र के लिए उनके मन में गंभीर श्रद्धा थी और वे उन्हें एक साम्राज्य निर्माता तथा प्रथम श्रेणी का राजनीतिज्ञ मानते थे।
शिवाजी महान विजेता ही नहीं थे, उनका नैतिक चरित्र उच्चकोटि का था और उनका विश्वास था कि मराठों को एकता तथा सुदृढ़ता प्रदान करने के कार्य में एक उच्च दैवीय शक्ति उनका पथ प्रदर्शन कर रही थी। वे महान देशभक्त थे और उनकी न्याय की भावना अत्यन्त तीव्र थी। उनका व्यक्तिगत जीवन उच्चकोटि के आदर्शवाद से अनुप्राणित था और उनकी नैतिक तथा धार्मिक आस्थाएँ अत्यन्त गंभीर थीं। रानाडे ने मराठा इतिहास की मुख्य विशेषताओं का विश्लेषण किया-
(1) रानाडे का मत है कि अंग्रेजों ने भारत की सत्ता मुसलमानों के हाथों से छीनी थी, यह कहना गलत है। भारत में ब्रिटिश शासकों के तात्कालिक पूर्वगामी मुसलमान नहीं थे जैसा कि प्रायः बिना सोचे-समझे मान लिया जाता है कि वे वास्तव में देशी शासक थे जिन्होंने मुसलमानों के प्रभुत्व का जुआ सफलतापूर्वक उतार फेंका था। ग्राण्ट डफ ने लिखा है कि मराठे भारत की विजय में हमारे पूर्वगामी थे, उनकी शक्ति धीरे-धीरे बढ़ रही थी और अन्त में उन्हें शिवाजी भोंसले नामक दूर-दूर तक विख्यात साहसी मिल गया। बंगाल तथा चोलमण्डल तट को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में जिन शासकों को अंग्रेज विजेताओं ने अपदस्थ किया वे मुस्लिम सूबेदार नहीं थे बल्कि हिन्द शासक थे जिन्होंने अपनी स्वाधीनता की सफललतापूर्वक स्थापना कर ली थी।
(2) रानाडे का विचार था कि महाराष्ट्र का पुनर्जागरण वास्तविक राष्ट्र निर्माण के क्षेत्र में एक प्रारम्भिक प्रयोग था क्योंकि वह उस सम्पूर्ण जनता का विप्लव था जो धर्म, भाषा, नस्ल तथा साहित्य के सामान्य सम्बन्धों के बन्धनों में बँधी हुई थी। वह कोई अभिजात वर्ग अथवा पूँजीपति वर्ग का आन्दोलन नहीं था बल्कि उसे देहात में बसने वाले विशाल जन समुदाय का समर्थन प्राप्त था। मराठों का इतिहास वास्तव में सच्ची भारतीय राष्ट्रीयता के निर्माण का इतिहास है।
(3) मराठों की शक्ति का उदय केवल एक राजनीतिक घटना नहीं थी उससे पहले प्रचण्ड सामाजिक तथा धार्मिक जागरण हो चुका था और उसके साथ हो रहा था। उसने नागरिक अधिकारों की आकांक्षाओं को तीव्र किया और उसके सामान्य संघटन के फलस्वरूप कला, साहित्य, राजनीति तथा धर्म के क्षेत्र में सृजनात्मक शक्तियाँ फूट पड़ीं। यह सांस्कृतिक उथल- पुथल तथा पुनर्निर्माण परम्परागत ब्राह्मणवाद का पुनरुत्थान नहीं था बल्कि उसकी अपनी तीन महत्वपूर्ण विशेषताएँ थीं- प्रथम, उसका अंशतः स्वरूप परम्परा विरोधी था । रामदास ने राष्ट्रीय ध्वज का रंग निर्धारित किया और अभिवादन की नयी प्रणाली आरम्भ की। दूसरे यह आन्दोलन श्रद्धामूलक तथा भक्तिमार्गी था। महाराष्ट्र के सन्त एकेश्वरवादी थे परन्तु मूर्तिभंजक नहीं थे। तीसरे इस आन्दोलन ने अंशतः सामाजिक तथा नागरिक स्वतंत्रता का समर्थन किया और आत्मनिर्भरता तथा सहिष्णुता का उपदेश दिया। महाराष्ट्र के सन्तों तथा देवदूतों ने सुदृढ़ सामाजिक व्यवस्था के निर्माण में जो योग दिया उसको रानाडे बहुत महत्वपूर्ण मानते थे।
यद्यपि रानाडे की मराठा इतिहास की व्याख्या को सर्वस्वीकृति नहीं मिली है फिर भी मानना पड़ेगा कि उसके पीछे गम्भीर चिंतन तथा राजनीतिक शक्ति के नैतिक आधार की छानबीन करने का सच्चा प्रयत्न छिपा हुआ है।
रानाडे के आर्थिक विचार
रानाडे अर्थशास्त्र के भी ज्ञाता थे। उन्होंने बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों एडम स्मिथ, माल्थस, रिकार्डो तथा जे. एस. मिल के आर्थिक विचारों का अध्ययन किया था। इसका उन पर भारी प्रभाव हुआ था परन्तु उन्हें यह लगा था कि भारत एक गरीब देश है अतः इन विद्वानों के सिद्धान्त भारत के लिए उपयुक्त नहीं हैं। रानाडे के विचार से अर्थशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान था। वे उसके समाजशास्त्रीय सिद्धान्त को स्वीकार करते थे। उनका विचार था कि राज्य का कर्तव्य है कि उद्योगों एवं कृषि व्यवस्था को उन्नत करे जिससे कि जनता का कल्याण हो। समाज में केवल शान्ति बनाये रखने से राज्य का काम पूरा नहीं हो जाता।
रानाडे के निम्नलिखित कथन से हम सहज ही यह अनुमान करते हैं कि भारत की निर्धनता के कारण वे कितने दुखी थे- “यदि आप दरिद्रता के दर्शन करना चाहते हैं तो एक बार नगर की सड़क पर घूम आइये। आप देखेंगे कि दरिद्रता की चक्की में लोग पिसे जा रहे हैं। हममें से करोड़ों व्यक्ति ऐसे हैं जो दिन भर में दो आने कठिनाई से कमा पाते हैं और इससे अधिक संख्या ऐसे व्यक्तियों की है जो कि सदैव आधे भूखे रहते हैं तथा दुर्भिक्ष और शनैः-शनैः मृत्यु की सीमा पर खड़े रहते हैं।”
भारतीय समाज के अपने अध्ययन के फलस्वरूप वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि भारत की गरीबी के निम्नलिखित कारण हैं- (1) कृषि पर ही निर्भरता का अधिक होना। इसका परिणाम यह हुआ कि औद्यागिक विकास का क्रम नष्ट हो गया। (2) ऋण की पुरातन पद्धति, इस पद्धति में किसानों का शोषण होता था जिसका क्रम निरन्तर जारी था। (3) कुछ क्षेत्रों में जनसंख्या का अधिक बढ़ जाना। (4) प्राचीन सामाजिक पद्धति एवं आधुनिक अर्थव्यवस्था का अन्तर्विरोध। (5) भारतीयों में औद्योगिक सहायता का अभाव। (6) धन और तकनीकी ज्ञान की कमी। इस कमी के कारण बड़े-बड़े कल-कारखाने नहीं लगाये जा सके।
उपर्युक्त कारणों से भारत जिस गरीबी से दबा हुआ था उसे हटाने का एकमात्र उपाय वे देश का औद्योगीकरण बताते थे। उन्होंने 1890 में पश्चिमी भारतीय औद्योगिक संघ की स्थापना भी की थी। इस संघ के द्वारा वे अपने उपरोक्त विचार को रचनात्मक रूप प्रदान करना चाहते थे। देश में उद्योगों के विकास के लिए रानाडे विदेशी पूँजी को आमंत्रित करना चाहते थे। इस विचार का अनेक लोगों ने इतना कट्टर विरोध किया कि वह व्यक्तिगत विद्रोह बन गया और रानाडे को देशद्रोही तक कहा गया।
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