रानाडे के सामाजिक विचार | Ranade’s social thoughts in Hindi

रानाडे के सामाजिक विचार
रानाडे के सामाजिक विचार

रानाडे के सामाजिक विचारों का वर्णन कीजिए।

रानाडे समाज सुधार के समर्थक थे। वे विधवाओं के पुनर्विवाह के पक्ष में थे और 1866 में जो विधवा विवाह संघ स्थापित किया गया था, उसके सदस्य थे। वे समझते थे कि राजनीतिक मुक्ति के लिए भी सामाजिक प्रगति आवश्यक है। जब दयानन्द सरस्वती 1875 में पूना गये तो रानाडे ने उन्हें हार्दिक सहयोग दिया क्योंकि स्वामी जी भी धार्मिक तथा सामाजिक सुधारों के कट्टर समर्थक थे। वे समाज सुधार चाहते थे किन्तु उसके लिए विद्रोह करने अथवा बलिदानी बनने के समर्थक नहीं थे। 1895 में पूना में इस बात पर भारी शोरगुल मचाया गया था कि सामाजिक सम्मेलन कांग्रेस के अधिवेशन के लिए तैयार किये गये पंडाल में होना चाहिए या नहीं। परतु रानाडे अतिवादियों के सामने झुक गये जिससे आपसी वैमनस्य शान्त हो गया।

राजनीति तथा समाज सुधार अन्योन्य आश्रित

रानाडे समाज को एक जटिल अवयवी मानते थे। उनका विचार था कि राजनीति तथा समाज सुधार को एक-दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता है। स्त्रियों पर विवेकहीन तथा मृतप्राय रूढ़ियों को थोपकर उनका दमन करना, उनके साथ अभद्र व्यवहार ही नहीं था, बल्कि इससे भारतीय समाज विदेशियों की घृणा का पात्र भी बना हुआ था, किन्तु यदि सामाजिक कार्यकलाप द्वारा राष्ट्र के जीवन को शक्ति प्रदान की जाती तो इसका अन्य क्षेत्रों में भी प्रभाव पड़ना अनिवार्य था। राजनीतिक अधिकारों तथा विशेषाधिकारों की प्राप्ति के लिए बुद्धि और न्याय पर आधारित समाज व्यवस्था की आवश्यकता थी। अतः रानाडे का आग्रह था कि राष्ट्र को उसकी कुछ कुप्रथाओं से मुक्त करने के लिए तत्काल समाज का सुधार करना आवश्यक है। उनका कहना था कि स्त्री समाज के अधिकार वंचित वर्ग की उन्नति तथा पुनःस्थापना से देश को राजनीतिक क्षेत्र में भी बल मिलेगा। उन्होंने कहा चाहे राजनीति का क्षेत्र हो और चाहे समाज, धर्म, वाणिज्य, उत्पादन अथवा सौन्दर्य की चाहे साहित्य हो और चाहे विज्ञान, कला, युद्ध अथवा शान्ति प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य की वैयक्तिक तथा सामूहिक रूप से अपनी शक्तियों का विकास करना है तभी वह मार्ग में आने वाली कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर सकता है। उनका कहना था कि वास्तविकता यह है कि यदि राजनीतिक अधिकारों के क्षेत्र में आप निम्न स्तर पर हैं जो आप अच्छी समाज-व्यवस्था की स्थापना नहीं कर सकते और न आप राजनीतिक अधिकारों का उपभोग करने के योग्य हो सकते हैं, यदि आपकी समाज व्यवस्था विवेक तथा न्याय पर आधारित नहीं है। आपकी आर्थिक व्यवस्था अच्छी नहीं हो सकती यदि आपके सामाजिक सम्बन्ध दोषयुक्त हैं।

रानाडे के अनुसार समाज सुधार राष्ट्रीय चरित्र की दृढ़ता और शुद्धीकरण का एक साधन था। इसीलिए उन्होंने सामाजिक विकास के परिवर्द्धन को महत्व दिया। वे चाहते थे कि यदि भारत में सामाजिक विकास राजनीतिक उन्नति से पहले नहीं हो सकता तो कम से कम उसके साथ-साथ अवश्य चलना चाहिए। इसीलिए रानाडे ने बन्धन, सहज विश्वास की प्रकृति, सत्ता, विचारों की कट्टरता तथा भाग्यवाद के स्थान पर स्वतंत्रता, आस्था, बुद्धि, सहिष्णुता तथा मानव गरिमा की भावना को प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता पर बल दिया।

सामाजिक परिवर्तन विधि

 रानाडे का विचार था कि अपेक्षित सामाजिक परिवर्तन धर्म परिवर्तन अथवा क्रान्ति द्वारा नहीं लाया जा सकता है उसके लिए आवश्यक है कि नये विचारों तथा आदर्शों को धीरे-धीरे ग्रहण किया जाए और सावधानी से उन्हें आत्मसात किया जाए। इसलिए समाज की प्रवृत्ति अवयवी है और सामाजिक सम्बन्धों का ताना-बाना साझेदारी की भावना से अनुप्राणित होना चाहिए, इन दो विचारों से प्रेरित होकर रानाडे ने देशवासियों के कल्याण के लिए व्यापक कार्यक्रम का समर्थन किया। इस प्रकार रानाडे तथा के. टी. तेलंग दोनों ही सामाजिक विकास तथा सुधार के सम्बन्ध में अवयवी और इतिहासवादी दृष्टिकोण को स्वीकार करते थे।

रानाडे की दृष्टि में समाज -दोष

रानाडे हिन्दू समाज के पाँच आधारभूत दोषों का उन्मूलन करने के पक्ष में थे-

  1. बाह्य जगत से सम्पर्क न रखने की प्रवृत्ति ।
  2. अन्तःकरण की पुकार न सुनने और बाह्य सत्ता के समक्ष समर्पण करने की प्रवृत्ति ।
  3. सामाजिक अधीनता, सामाजिक दूरी और जातीय अहंकार को दबाये रखना ।
  4. बुराइयों को स्थायी रूप से बनाये रखने के प्रयत्नों को निष्क्रिय भाव से सहन करना।
  5. जीवन के ऐहिक क्षेत्रों में श्रेष्ठता प्राप्त करने की अनिच्छा।

रानाडे का सामाजिक परिवर्तन-

रानाडे स्त्रियों की पराधीनता तथा तत्जनित सामाजिक दुर्बलताओं के विरुद्ध थे। उन्होंने स्वीकार किया कि देश की दुर्बलता तथा अधोगति के मूल में सामाजिक कारण ही मुख्य थे। इसलिए उनकी दृष्टि से समाज उद्धार का राजनीतिक मुक्तीकरण से अवयवी सम्बन्ध था।

1897 के एक सामाजिक सम्मेलन में उन्होंने कहा था- “वे आन्तरिक विचार क्या हैं। जिन्होंने पिछले तीन हजार वर्षों में हमारे पतन की गति को तीव्र किया है।” ये विचार संक्षेप में इस प्रकार हैं- “पृथकत्व की भावना, अन्तःकरण की आवाज की अपेक्षा बाह्य शक्ति के समक्ष समर्पण करना, पुरुषों तथा स्त्रियों के बीच वंशानुक्रम अथवा जन्म के आधार पर काल्पनिक भेद देखना, बुराइयों अथवा पापाचार को निष्क्रिय रूप से सहन कर लेना और ऐहिक कल्याण के प्रति सामान्य उदासीनता जो बढ़कर भाग्यवाद की सीमाओं तक पहुँच गयी है। हमारी प्राचीन सामाजिक व्यवस्था के मूल में ये मुख्य विचार रहे हैं। इनका स्वाभाविक परिणाम वर्तमान पारिवारिक व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत स्त्री, पुरुष के अधीन है और नीची जातियाँ ऊंची जातियों के अधीन हैं। यह बुराई इस सीमा तक पहुँच गयी है कि मनुष्य मानवता के प्रति स्वाभाविक सम्मान की भावना से वंचित हो गया हैं।

रानाडे का मानस बन्धन मुक्त हो गया था। अतः वे जीर्ण-शीर्ण परिपाटियों से चिपके रहने के लिए तैयार न थे। यही कारण है कि व जाति व्यवस्था की जटिलता को तोड़ डालना चाहते थे और विधवा-विवाह तथा बालकों के लिए विवाह की आयु को बढ़ाने के पक्ष में थे। सामाजिक अधोगति को रोकने के लिए उन्होंने सामाजिक मामलों में बुद्धि के प्रयोग पर बल दिया। सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन के लिए साहसपूर्ण प्रयत्न तथा संकल्पयुक्त सहनशीलता की आवश्यकता थी, सामाजिक रूढ़ियों के अत्याचारों के सामने निष्क्रियता से समर्पण करने से काम नहीं चलने वाला था। साथ ही साथ यह भी आवश्यक था कि समाज सुधार का बीड़ा उठाने वाला स्वयं अपने चरित्र का सुधार करे।

सामाजिक परिवर्तन का मार्ग-रानाडे के विचार में सामाजिक परिवर्तन का अधिक अच्छा मार्ग यह था कि जनता को समझाया जाए कि जिसे परिवर्तन माना जाता है उसका वेदों, स्मृतियों आदि प्राचीन ग्रन्थों में ही विधान है। स्वामी दयानन्द तथा आर. जी. भण्डारकर ने यही मार्ग अपनाया था किन्तु धार्मिक ग्रन्थों की अनुशास्ति के नाम पर अपील करने के अतिरिक्त रानाडे यह भी चाहते थे कि लोगों को प्रेरित किया जाए कि वे बालविवाह और मद्यपान का . परित्याग करने तथा विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देने के सम्बन्ध में प्रतिज्ञा करें और शपथ लें। उनका विश्वास था कि यदि इतिहास तथा परम्परा के नाम पर समझाने और लोगों के अन्तःकरण से हार्दिक अपील करने से आवश्यक परिणाम न निकले तो राज्य के बाध्यकारी आदेश से समर्थित कानून का भी सहारा लिया जा सकता है। इस प्रकार रानाडे ने स्वीकार किया कि आवश्यक सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए शास्त्रों की आप्तता तथा अन्तःकरण दोनों के ही नाम पर अपील करना आवश्यक था किन्तु वे सामाजिक परिवर्तनों के लिए राज्य की शक्ति का भी प्रयोग करने के विरुद्ध नहीं थे। परम्परावादी दल जिसके नेता तिलक थे, रानाडे की समाज- सुधार की नीति की आलोचना करता था। आलोचना के उत्तर में रानाडे ने कहा कि समाज सुधारक किसी नितान्त नयी अथवा विदेशी वस्तु का प्रचार नहीं कर रहे हैं बल्कि वे अतीत की ओर लौटने का ही यत्न कर रहे हैं, किन्तु पिछले एक हजार वर्ष में मध्युगीन राजनीतिक पराभवजनित बोझ तथा प्रतिबन्धों ने देश की सामाजिक प्रगति को कुचल दिया था। इसलिए समाज सुधार की समस्याओं के सम्बन्ध में प्रबुद्ध विवेक से काम लेना आवश्यक था। रानाडे का विश्वास था कि जिस नीति का समाज सुधारक प्रचार कर रहे थे वह वास्तव में उस सुदूर अतीत की ओर लौटने की नीति थी जब देश की सामाजिक परम्पराएँ अधिक बुद्धिसंगत थीं, किन्तु रानाडे चाहते थे कि समाज सुधारकों को सावधानी और संयम से काम लेना चाहिए और अतीत का यथोचित सम्मान करना चाहिए।

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