स्वामी दयानन्द सरस्वती “एक राष्ट्रवादी विचारक थे”, का विश्लेषण कीजिए।
स्वामी दयानन्द सरस्वती के राष्ट्रवादी विचार- फ्रांसीसी विचारक रोम्यांरोलॉ का कथन है कि “दयानन्द सरस्वती ईलियड या गीता के प्रमुख नायक के समान थे, जिन्होंने हरक्युलिस जैसी शक्ति के साथ हिन्दुओं के अन्धविश्वासों पर प्रबल प्रहार किए। वास्तव में शंकराचार्य के उपरान्त इतनी महान बुद्धि का सन्त दूसरा नहीं जन्मा।” वह आधुनिक भारत के सबसे महान ऐसे पथ-निर्माता माने जाते हैं, जिसने जातियों, उपजातियों, छुआछूत, आदि के बीहड़ वनों को चीर कर भारत के पतन-काल में ईश्वराधना, देश-भक्ति तथा मानव सेवा का सहज मार्ग बताया। उन्होंने तीक्ष्ण दृष्टि और दृढ़ संकल्प के साथ कोटिशः भारतीयों को आत्म-सम्मान तथा मानसिक चेतना को उबुद्ध भी किया। दयानन्द सरस्वती के राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचारों को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जाता है-
नवचेतना / नवजागरण का सन्देश- दयानन्द जी ने देशवासियों में राष्ट्रवाद का सन्देश ऐसे समय में दिया जबकि भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की प्रधानता स्थापित हो गयी थी, ईसाई सभ्यता और संस्कृति भारतीयों का ईसाईकरण प्रारम्भ कर चुकी थी और देश के प्रमुख राज्य अंग्रेजी कम्पनी के चाकर बन गए थे। ऐसे कठिन समय में उन्होंने हिन्दुओं में नवजीवन के प्राण फूंके, भारत भूमि की कांति और महिमा समझाई, देशवासियों को भारत का स्वर्णिम इतिहास बताया। उन्होंने हमें यह भी बताया कि वास्तव में आर्य जाति ही ईश्वर की सर्वोत्तम सृष्टि और प्रिय जाति है। वेद ही उनकी वाणी है तथा भारत देश ही ईश्वर को प्रिय है। अन्य धर्म आधे-अधूरे मात्र हैं, अतः आर्यों का कर्तव्य है कि वे उन्हें आर्य धर्म में दीक्षा प्रदान करें।
हिन्दू पुनर्जागरण / पुनरुत्थान- स्वामी जी ने हिन्दुओं के पुनरोदय या पुनरुत्थान के द्वारा भारतवासियों में राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद को पुनः जाग्रत करने के लिए शताब्दियों से विद्यमान अविवेक, हताशा, रूढ़िवादिता, दुष्प्रथाओं, आदि से जमकर संघर्ष किया। उन्होंने आर्य समाज के सामाजिक आचार तथा नैतिक सिद्धान्तों को ऐसा रूप दिया, जिसमें मनुष्य-मनुष्य में विभेद, जातिगत भेद, असमानता, स्त्री-पुरूष की विषमतापूर्ण प्रस्थिति को कोई भी स्थान नहीं प्राप्त था ।
स्वराज्य का आदर्श- दयानन्द के स्वराज्यवादी आदर्शों के दर्शन उनकी “सत्यार्थ प्रकाश” नामक पुस्तक में होते हैं। उन्होंने बताया कि भारत में इस समय आर्यों का अखण्ड, स्वाधीन, स्वतन्त्र राज्य नहीं है और जो कुछ है, वह विदेशियों से पदाक्रान्त और पराभूत हैं। उन्होंने कहा कि स्वदेशी राज्य ही सबसे अच्छा होता है, विदेशी राज्य नहीं। उन्होंने स्वदेशी राज्य का महिमा मण्डन करते हुए भावी राष्ट्र के निर्माताओं के समक्ष अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया, उन्हें उत्प्रेरित किया। उनका मत था कि स्वराज्य का आदर्श ही हमें राष्ट्रवाद के मार्ग पर ले जाएगा।
स्वदेशी का समर्थन- स्वामी दयानन्द ने स्वदेशी की भावना पर बल दिया। उन्होंने कहा कि स्वदेश में निर्मित वस्तुओं का प्रयोग करना प्रत्येक भारतीय का धार्मिक कर्तव्य है। स्वदेशी वस्तुओं का उत्पादन और उपभोग करने पर बल देने से दयानन्द सरस्वती को गांधी जी का अग्रगामी कहा जाता है। स्वदेशी का समर्थन करके उन्होंने भारतीयों के जीवन के राजनीतिक पक्ष को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया।
निडरता की शिक्षा- दयानन्द जी ने देशवासियों को निर्भीकता की शिक्षा दी। उन्होंने स्पष्ट किया कि विदेशी प्रभुत्व और दमन का सामना निडरता के माध्यम से ही सम्भव है। निडरता ही ऐसी शक्ति है, जो कि निरंकुश साम्राज्यवादियों से लड़ सकती है। मानव-अधिकारों को केवल साहस और निर्भीकता द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने सन्देश दिया कि भारतीयों को अपना आत्म-बल बढ़ाकर विदेशी दासता के विरुद्ध डटकर खड़ा होना आवश्यक है। स्वतन्त्रता की प्राप्ति भी भीरूता/कायरता से नहीं, वरन् साहस और निर्भीकता धारण करने पर ही निर्भर करती है।
दयानन्द सरस्वती के उपरोक्त वर्णित विचारों एवं कार्यों से स्पष्ट होता है कि वह राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रवाद की परम्परा को पुनर्जीवित करने वाले ऐसे पुरोधा थे, जिनका चरम उत्कर्ष कालान्तर में तिलक, लाल, बाल एवं पाल में हुआ। वेलेन्टाइन शिरोल के अनुसार, “दयानन्द ने जो आन्दोलन आरम्भ किया, उससे आत्म-निर्भरता की भावना पैदा हुई तथा भारतीयों में आत्म-सम्मान की भावना प्रबल हुई।” दयानन्द की शिक्षाओं तथा उपदेशों की समग्र प्रवृत्ति भारतीय जनमानस को विदेशी प्रभावों के विरुद्ध खड़ा करने की थी। दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित ‘आर्य समाज’ ने थोड़े ही समय में राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत कर पूरे देश में उसका प्रसार कर दिया। स्वामी दयानन्द का आन्दोलन केवल धर्म, समाज और राजनीति तक ही सम्बन्धित न था, अपितु सबसे बढ़कर यह महान राष्ट्रीय एवं नैतिकतापूर्ण आन्दोलन था।
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