दयानन्द सरस्वती के समाज सुधार सम्बन्धी विचारों का विश्लेषण करें।
स्वामी दयानन्द विश्व के अग्रणी समाज सुधारक थे। उनके सामाजिक तथा धार्मिक सुधारों ने देश के पुनर्जागरण में महत्वपूर्ण योगदान किया। हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों, अन्धविश्वासों, पाखण्डों के विरुद्ध क्रान्ति का उद्घोष करने वाले वह सबसे प्रथम व्यक्ति थे। उन्होंने भारतीय समाज और धर्म के पुनरुत्थान के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया, अन्तिम समय तक सुधारों के क्रियान्वयन में संलग्र रहे। विपिन चन्द्र पाल के अनुसार, स्वामी दयानन्द का आन्दोलन केवल धर्म सुधार आन्दोलन नहीं था बल्कि समाज सुधार आन्दोलन भी था। स्वामी जी समाज सुधार के राजनीतिक चेतना की जागृति और राष्ट्रीयता के विकास के लिए अनिवार्य मानते थे। उनके सामाजिक विचारों का वर्णन हम निम्नानुसार कर सकते हैं-
(1) सामाजिक कुप्रथा के प्रबल विरोधी- स्वामी दयानन्द यद्यपि वैदिक धर्म के अनुयायी थे, लेकिन उनके द्वारा कुप्रथाओं का कभी भी समर्थन नहीं किया गया। उनके द्वारा समाज में व्याप्त कुप्रथाओं का विरोध हमेशा किया जाता रहा। उन्होंने बाल-विवाह प्रथा, दहेज प्रथा, बलात् वैधव्य प्रथा जैसी प्रचलित कुप्रथाओं का कट्टरता से विरोध किया। वे विधवा विवाह के भी समर्थक थे। दहेज प्रथा को समूल नष्ट करना चाहते थे, क्योंकि इस प्रथा को समाज के लिए अभिशाप समझते थे।
(2) जाति-प्रथा विरोधी- स्वामी दयानन्द एक असाधारण समाज-सुधारक थे। हिन्दू जाति प्रथा को वे अभिशाप समझते थे। उनके काल में दलित वर्ग को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपमान और घुटन के वातावरण में जीवन-यापन करना पड़ता था। उन्हें मन्दिरों में जाने नहीं दिया जाता था और न ही उन्हें भेद-अध्ययन के योग्य माना जाता था। इस चली आर रही प्रथा को स्वामी दयानन्द ने पण्डितों का पाखण्ड जाल बताया। उनका कहना था कि, जैसे परमात्मा ने सभी प्राकृतिक वस्तुयें समान रूप से प्रत्येक मनुष्य को प्रदान की है, उसी प्रकार वेद सबके लिए प्रकाशित है। उन्होंने कहा कि शूद्र वेदाभ्यास का उसी प्रकार अधिकारी है, जैसे कि उच्च वर्ण ।
(3) मूर्ति पूजा के विरोधी- स्वामी दयानन्द मूर्ति पूजा के विरोधी थे। अन्धविश्वास एवं पाखण्ड को वे मूर्ति पूजा के द्वारा ही जन्मा मानते थे। उनका कहना था कि “ यद्यपि मेरा जन्म आर्यावर्त में हुआ और मैं यहां का निवासी हूँ, लेकिन मैं पाखण्ड का विरोधी हूँ और यह मेरा व्यवहार अपने देशवासियों तथा विरोधियों के साथ समान है। मेरा मुख्य उद्देश्य मानवजाति का उद्धार करना है।”
(4) नारी उत्थान समर्थक- स्वामी दयानन्द नारी के उत्थान के लिए वेदों में निहित यह श्लोक दोहराया करते थे “यत्र नार्यस्त पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।” अर्थात् जहाँ नारी की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं। उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज ने अनेक नगरों में आर्य कन्या स्कूलों की स्थापना की थी जिनमें लड़कियों के पढ़ने की व्यवस्था ही नहीं हुई, वरन् स्त्री शिक्षा का प्रसार हुआ। स्त्रियों से सम्बन्धित अनेक कुप्रथाओं के विरुद्ध आन्दोलन चलाकर आर्य समाज ने स्त्रियों को समाज में उच्च स्थान दिलाया।
(5) हिन्दी भाषा को सर्वोच्चता- स्वामी दयानन्द का जन्म गुजरात में हुआ था। गुजराती होते हुए भी उन्होंने हिन्दी (आर्य भाषा) का समर्थन किया। उन्होंने अपने सभी ग्रन्थों की रचना हिन्दी भाषा में ही की। हिन्दी भाषा को वह राष्ट्रीय भाषा के रूप में देखना चाहते थे। स्वामी दयानन्द ने हिन्दी ग्रन्थों की रचना कर हिन्दी भाषा को प्रोत्साहन दिया। राष्ट्रीय आन्दोलन में भी राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को स्थापित कराने का श्रेय स्वामी दयानन्द को ही जाता है। समय के साथ हिन्दू राष्ट्रवादियों को हिन्दी भाषा के प्रयोग करने के लिए बाध्य किया। राष्ट्रीय आन्दोलन के पुरोधा महात्मा गांधी ने भी स्वामी जी के विचारों से प्रेरणा लेकर अपने समस्त ग्रन्थों की रचना हिन्दी भाषा में ही की।
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