दलितोद्धार हेतु डॉ. अम्बेडकर के सुझाव

दलितोद्धार हेतु डॉ. अम्बेडकर के सुझाव
दलितोद्धार हेतु डॉ. अम्बेडकर के सुझाव

डा0 अम्बेडकर दलितों के मसीहा थे’ इस कथन की समीक्षा कीजिये।

दलितोद्धार हेतु डॉ. अम्बेडकर के सुझाव

डा0 अम्बेडकर भारत में न्यायनिष्ठ समाज व्यवस्था की स्थापना हेतु दलित वर्ग के उत्थान को आवश्यक मानते थे। उनका यह सुविचारित मत था कि जब तक इन वर्गों के सदस्यों को उच्च वर्गों के समान आर्थिक और सामाजिक अधिकार प्रदान नहीं किये जाते, तब तक राजनीतिक स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं है। सामाजिक समानता ही राजनीतिक स्वतन्त्रता को सार्थक बना सकती है तथा वह सभी वर्गों के समान उपभोग और उत्थान सा साधन सिद्ध हो सकती है। अतः उनकी दृढ़ मान्यता थी कि दलित वर्ग के उत्थान हेतु सवर्ण वर्गों के दृष्टिकोण में प्रगतिशील परिवर्तन किये जाने की आवश्यकता है तथा यह लक्ष्य सिर्फ उनके हृदय परिवर्तन द्वारा ही प्राप्त नहीं किया जा सकता है वरन् राज्य शक्ति का भी इस दृष्टि से प्रयोग आवश्यक है। राज्य के लिए इस दृष्टि से एक सकारात्मक एवं सक्रिय भूमिका का निर्वाह करना जरूरी है। इस दृष्टि से उनके द्वारा जो सुझाव दिये गये, वे इस प्रकार हैं-

सर्वप्रथम हिन्दू समाज का असमानता आधारित परम्परावादी रूप समाप्त कर उसका सर्वस्वतन्त्रता, समानता तथा बंधुत्व के सिद्धांत के आधार पर पुनर्गठन किया जाये;

द्वितीय, उक्त लक्ष्य की प्राप्ति हेतु वर्ण और जाति के साथ जो पवित्रता की भावना संलग्न है, उसे नष्ट किया जाये तथा तृतीय, वर्ण एवं जाति की पवित्रता की यह भावना तभी नष्ट हो सकती है जबकि उसे शास्त्रों की दिव्य सत्ता से पृथक कर दिया जाये।

डा. अम्बेडकर द्वारा प्रतिपादित सामाजिक चिन्तन के ये मूल तत्व है। इन्हीं के आधार पर उन्होंने भारत में एक नवीन एवं प्रगतिशील सामाजिक व्यवस्था की स्थापना का आह्वान किया। इस प्रकार की समाज व्यवस्था की स्थापना का उत्तरदायित्व यद्यपि वे सभी वर्गों का साझा उत्तरदायित्व मानते थे लेकिन इस हेतु उन्होंने दलित वर्गों का विशेष आदान किया क्योंकि इसकी स्थापना प्रत्यक्ष रूप से उनके उत्थान से जुड़ी हुई थी। इस हेतु उन्होंने नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तरह के सुझाव दिये जो निम्नानुसार हैं-

1. परम्परावादी सामाजिक मान्यताओं में बुनियादी परिवर्तन पर जोर – डा० अम्बेडकर ने दलितों के उद्धार की दृष्टि से जिस बात पर सर्वाधिक जोर दिया, वह परम्परागत हिन्दू समाज में प्रचलित भेदभावपूर्ण मान्यताओं में बुनियादी परिवर्तन की माँग से सम्बन्धित था। इस दृष्टि से उन्होंने यह आवश्यकता प्रतिपादित की कि हिन्दू समाज को धर्मगत और जातिगत रूढ़िवादी बन्धनों से मुक्त कर उसका सर्वसमता, स्वतंत्रता तथा बन्धुत्व के आधार पर पुनर्गठन किया जाये। उसे सभी तरह की संकीर्णताओं, कट्टरताओं और विवेकहीन मताग्रहों से मुक्त कर विवेकशील उदारवादी मानव मूल्यों पर उसका नवनिर्माण किया जाये जिससे कि सभी की धार्मिक आस्थाएँ समान हों और सभी स्वयं को एक ही धार्मिक समाज का सदस्य समझकर एक समान जीवन पद्धति के अनुसार जीवन निर्वाह करते हुए विकास के समान अवसर प्राप्त कर सकें तथा अपनी क्षमताओं के अनुसार उन्नति कर एक समान जीवन जी सकें। इस प्रकार जन्म-आधारित चतुर्वर्ण व्यवस्था के स्थान पर कर्म-आधारित एक वर्ण-व्यवस्था की स्थापना की जाये तथा सभी को धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से समानता का स्तर प्रदान किया जाये तथा इस तरह वर्तमान समाज में वर्ण व्यवस्था आधारित भेदभाव को समाप्त कर दलित अदलित के भेद का अन्त किया जाये।

2. पुरोहिताई का प्रजातन्त्रीकरण – धार्मिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करने की दृष्टि से डा. अम्बेडकर उस पर सिर्फ ब्राह्मण पुरोहितों के एकाधिकार को भी उचित नहीं मानते थे। वे पुरोहिती के कार्य का प्रजातांत्रिकरण करना चाहते थे, ताकि योग्य होने पर ब्राह्मणों से अन्य लोग भी पुरोहित के रूप में कार्य कर सकें। ब्राह्मणवादी व्यवस्था की समाप्ति के लिए वे इसे भी एक आवश्यक कार्य मानते थे तथा उसे सभी योग्य व्यक्तियों के लिए खोल दिये जाने के पक्ष में थे। ब्राह्मणवाद को डा. अम्बेडकर समाज के लिए विष के समान घातक मानते थे तथा उसे ही समाज की अधिकांश विकृतियों के लिए उत्तरदायी मानते थे। पुरोहिति पर ब्राह्मणों के एकाधिकार को समाप्त कर वे समाज को इससे मुक्त करना चाहते थे, ताकि समाज सुधार का कार्य निर्बाध रूप से सम्पन्न हो सके और योग्य होने पर दलित वर्ग के सदस्य भी प्ररोहित के रूप में कार्य कर सकें। इस तरह हिन्दुत्व की अवधारणा को वे ब्राह्मणवादी से अब्राह्मणवादी बनाना चाहते थे तथा इसी में हिन्दू समाज का हित समझते थे।

3. दलित वर्ग का शिक्षित तथा संगठित होकर संघर्ष करने का आह्वान – डा० अम्बेडकर ने स्पष्ट रूप से यह अनुभव किया कि दलित वर्ग के उत्थान एवं अस्पृश्यता निवारण सिर्फ सवर्णों की सदिच्छा और सद्भावना पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। उनका वास्तविक उत्थान तभी सम्भव है जबकि दलित वर्ग स्वयं शिक्षित और संगठित होकर इस हेतु संघर्ष करे। अतः इस उद्देश्य से उन्होंने दलित वर्गों का शिक्षित और संगठित होकर संघर्ष करने हेतु आह्वान किया। उन्होंने इस दृष्टि से यह मत प्रतिपादित किया कि बिना शिक्षित हुए दलित वर्ग में अपनी होन स्थिति के प्रति जागरूकता पैदा नहीं हो सकती और वे उससे प्रेरित होकर संगठित हो सकते हैं तथा अपनी मुक्ति के लिए सफल संघर्ष करने की स्थिति प्राप्त कर सकते हैं। उनके अनुसार तीनों कार्य एक क्रमवार स्थिति में जुड़े हुए हैं जिन्हें सम्पन्न करके ही वे एक आत्म-सम्मानपूर्ण जीवन जीने के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। इसीलिए उन्होंने दलित वर्गों का इस हेतु आह्वान करते हुए कहा कि “बिना संघर्ष किये न सत्ता प्राप्त हो सकती है और न प्रतिष्ठा।” उन्होंने आगे कहा, “ईश्वर के भरोसे जीना मत सीखो, अपने बाहुओं के बल पर विश्वास करो तथा उसी के आधार पर कार्य करो। जो संघर्ष करते हैं, सत्ता उन्हीं का वरण करती है। अत: पूजा-अर्चना और जप तप छोड़ो और राजनीति के दुधारू थनों को दुहरें। तुम्हारी मुक्ति इसी में निहित है।”

4. हीन भाव और बुरी आदतों के परित्याग पर बल – डा0 अम्बेडकर की मान्यता थी कि दलित वर्गों में रहन-सहन और खान-पान की बुरी आदतें तथा मानसिक दासता से उत्पन्न हीन भाव उनके लिए समाज में सम्मानपूर्ण एवं प्रतिष्ठित स्थान अर्जित करने की दृष्टि से मुख्य बाधायें हैं, अतः उन्होंने उनके परित्याग का आह्वान किया। इस दृष्टि से उन्होंने कहा, “आप मरे हुए पशुओं का माँस न खायें, जूठा भोजन स्वीकार न करें, ऊँची जाति के लोगों से किसी तरह की याचना न करें, ऊँच नीच की भावना अपने मन से निकाल दें और किसी भी स्थिति में दास की तरह व्यवहार न करें।” दलित वर्ग की महिला को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा, “आप दुर्गुणों से दूर रहें, अपनी बेटियों को पढ़ायें-लिखायें, उनके मन में महत्वाकांक्षायें पैदा करें और उनका विवाह करने में जल्दी न करें।” इस तरह उन्होंने दलित वर्ग को यह संदेश दिया कि मुक्त होने के लिए स्वयं में सुधार जरूरी ही नहीं, अनिवार्य भी है। स्वयं का सुधार ही स्वयं की मुक्ति का मार्ग भी है। जब तक वे इसका अनुसरण नहीं करेंगे, तब तक मुक्त होकर भी वे वास्तविक दृष्टि से मुक्त नहीं हो सकेंगे और समाज की मुख्य धारा में सम्मिलित होकर एक प्रतिष्ठत जीवन जीने का अधिकार प्राप्त नहीं कर सकेंगे।

5. दलित वर्गों हेतु पृथक एवं पर्याप्त प्रतिनिधित्व की मांग – डा. अम्बेडकर का यह सुविचारित मत था कि दलित वर्गों की मुक्ति तथा जीवन दश में सुधार हेतु उनके लिए राजनीतिक सत्ता में उचितभागीदारी की व्यवस्था जरूरी है। राजनीतिक सत्ता में यह उचित भागीदारी उन्हें भी तभी प्राप्त हो सकती पबकि उन्हें अपनी संख्या के अनुसार विधान मण्डल में समुचित स्थान प्राप्त करने हेतु उनके लिए उनमें स्थान- आरक्षण की व्यवस्था ही न हो वरन् उनके निर्वाचन हेतु पृथक निर्वाचन मण्डल भी हो। डा. अम्बेडकर की यह मांग बाद में स्वतंत्र भारत का संविधान निर्माण करते समय संविधान सभा द्वारा आंशिक रूप से स्वीकार कर ली गयी। उसके अनुसार विधान मण्डलों में उनके लिए स्थान तो आरक्षित किये गये लेकिन पृथक निर्वाचन मण्डल की माँग अस्वीकार कर दी गयी। अतः उनरके आरक्षित स्थानों के लिए अब निर्वाचित किये जाने वाले प्रतिनिधियों का निर्वाचन पृथक निर्वाचन के द्वारा नहीं वरन् संयुक्त निर्वाचन क्षेत्रों द्वारा दलित अदलित सभी वर्गों के मतदाताओं द्वारा किया जाता है।

6. दलित वर्गों के लिए सार्वजनिक सेवाओं में आरक्षण – राजनीतिक सत्ता में समुचित भागीदारी हेतु उसके प्रशासकीय पक्ष में आयोजित विभिन्न सार्वजनिक सेवाओं में दलित वर्ग के योग्य एवं सक्षम सदस्यों हेतु रोजगार के समुचित अवसर प्रदान किये जाने हेतु स्थान आरक्षित किये जाने की व्यवस्था को डा. अम्बेडकर उचित ही नहीं आवश्यक भी मानते थे। इस हेतु उन्होंने सार्वजनिक सेवाओं में उनके लिए विशेष आरक्षण की व्यवस्था हेतु आवश्यक कानूनी तथा संवैधानिक प्रावधानों की व्यवस्था किये जाने हेतु बल दिया। इसी उद्देदश्य हेतु भारतीय संविधान के एक प्रमुख निर्माता के रूप में उसमें विभिन्न राजकीय सेवाओं में दलित वर्ग की विभिन्न अनुसूचित जातियों और जनजातियों हेतु आरक्षण के प्रावधानों को सम्मिलित करवाने की दृष्टि से डा. अम्बेडकर ने एक निर्णायक भूमिका का निर्वाह किया। अतः आज जो इन सेवाओं मैं इन जातियों को आरक्षण प्राप्त है, उसका एक बहुत बड़ा कारण डा. अम्बेडकर द्वारा इस दिशा में किये गये प्रयासों का ही परिणाम है।

7. दलित वर्ग के लिए विशेष सुविधाओं की माँग – डा. अम्बेडकर की मान्यता थी कि दलित वर्ग को शिक्षित होने का संदेश देना ही पर्याप्त नहीं है वरन् उसे कार्य रूप में परिणत करने हेतु उसके लिए विशेष प्रेरक व्यवस्था को स्थापित किये जाने की आवश्यकता भी है। इसी दृष्टि से उन्होंने यह माँग की कि राज्य शासन न सिर्फ विभिन्न शिक्षण संस्थानों में उनके लिए शिक्षा प्राप्त करने हेतु स्थान संरक्षित करे वरन् पर्याप्त एवं आकर्षक छात्रवृत्तियों के माध्यम से उन्हें उनमें प्रवेश लेने हेतु भी प्रेरित करे, ताकि सकारात्मक दृष्टि से उनके लिए एक ऐसा वातावरण निर्मित हो सके जिससे वे शिक्षा के महत्व के प्रति जागरूक हो सकें। इसी आधार पर भारतीय संविधान में दलित वर्ग की जातियों के छात्रों की शिक्षा की दृष्टि से विभिन्न शिक्षण संस्थाओं में सिर्फ स्थान ही आरक्षित नहीं किये वरन् पर्याप्त संख्या में छात्रवृत्तियों की व्यवस्था भी की जिसका लाभ आज भी इन जातियों के छात्र उठा रहे हैं। उपरोक्त के अतिरिक्त अम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन का प्रस्ताव भी दिया और 14 अक्टूबर 1956 को अपने पाँच लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार उनके द्वारा किये गये दलित उद्धार के कार्यों के कारण उन्हें दलितों का मसीहा या मुक्तिदाता कहा गया।

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