गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक विचार क्या हैं?

गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक विचार क्या हैं?
गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक विचार क्या हैं?

गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक विचार क्या हैं?

गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक विचार

 (i) उदारवाद में विश्वास-

गोखले ने राजनीति का मार्ग सेवा की दृष्टि से अपनाया। वे देश के सच्चे सेवक थे और हमारा देश उस समय पराधीन था, इसलिए वे समझते थे कि देश को स्वशासन तक पहुंचाना परमावश्यक है। वे राजनीति में किसी यश या पद प्राप्ति के लिए नहीं आये थे। उनका जीवन अत्यन्त त्यागमय था और वे मातृभूमि की सेवा के लिए अधिक से अधिक लोगों को तैयार करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने भारत सेवक संघ (सर्वेट्स ऑफ इण्डिया सोसायटी) की स्थापना की थी अपने गुरु महादेव गोविन्द रानाडे की भाँति वे राजनीति में उदारवादी थे उनके विचारों पर दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, दिनशा वाचा जैसे उदारवादी नेताओं का गहरा प्रभाव पड़ा। इसके अतिरिक्त फर्ग्यूसन कॉलेज, पूना के प्रधानाचार्य सारावाई और एलफिन्सटन कॉलेज मुम्बई के प्रधान आचार्य डाक्टर वाईसवर्थ तथा प्रसिद्ध कांग्रेसी अंग्रेज नेता वेडरबर्न से भी उनका गहरा सम्पर्क था, फलतः उदारवाद में उनकी आस्था और अधिक दृढ़ हो गई। उनका उदारवाद लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से मेल नहीं खाता था, परन्तु दोनों के विचारों में किसी प्रकार की कटुता नहीं थी और न ही वे एक दूसरे से किसी प्रकार की घृणा करते थे।

गोखले यथार्थवादी थे। उनके जीवन में यथार्थवाद तथा आदर्शवाद का सुन्दर मेल था। वे इस बात पर विचार करते थे कि तत्कालीन परिस्थितियों में क्या सम्भव था और क्या सम्भव नहीं था। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों को समझे बिना गोखले की स्वशासन की मांग को समझना कठिन है क्योंकि जहाँ वे एक तरफ भारत को ब्रिटिश साम्राज्य का एक अभिन्न अंग रखना चाहते थे, वहीं दूसरी तरफ भारतीयों के लिए अपने देश पर शासन करने के लिए अधिक अधिकार भी चाहते थे। उनके कई आलोचक उनकी इस विचारधारा को पसंद नहीं करते थे। उनको उत्तर देते हुए गोखले ने कहा, “क्या आपका यह विचार है कि हममें आत्म सम्मान का इतना अभाव है और हम इतने पतित हैं कि अपने देश की पराधीनता से हमें प्रसन्नता होती है? यदि सम्भव हो तो मैं अपने देश को आज ही स्वतंत्र देखना चाहूँगा परन्तु क्या यह सम्भव है?”

(ii) स्वशासन के समर्थक –

गोपाल कृष्ण गोखले ने भारत के लिए स्वशासन या अधिराज्य स्थिति की माँग की। उन्होंने कहा कि भारत को वही दर्जा प्राप्त होना चाहिए जो कनाडा तथा आस्ट्रेलिया जैसे अन्य अधिराज्यों को प्राप्त है। वे भारत के ब्रिटिश साम्राज्य से सम्बन्ध तोड़ना नहीं चाहते थे। उनका यही विचार था कि अधिराज्य स्थिति केवल ब्रिटिश साम्राज्य के अन्दर रहकर ही प्राप्त की जा सकती है। इस सम्बन्ध में 1907 में इलाहाबाद में दिया गया उनका भाषण चिरस्मरणीय रहेगा इस भाषण में उन्होंने कहा- “मैं चाहता हूँ कि मेरे देशवासियों की स्थिति इस देश में वैसी ही हो जैसी अन्य लोगों की अपने देश में है। मैं बिना किसी जाति अथवा सम्प्रदाय के भेद के प्रत्येक स्त्री और पुरुष के पूर्ण विकास का समर्थक हैं। मैं चाहता हूँ कि उन पर किसी प्रकार का अप्राकृतिक प्रतिबन्ध न लगाया जाए। मैं चाहता हूँ कि भारत संसार के महान देशों में राजनीतिक, औद्योगिक, धार्मिक, साहित्यिक, वैज्ञानिक तथा कला के क्षेत्र में अपना उपयुक्त स्थान ग्रहण करे। मैं यह चाहता हूँ कि यह समस्त आदर्श ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत ही प्राप्त हो।”

(iii) गोखले ब्रिटिश शासन को एक वरदान मानते थे –

वे ब्रिटिश शासन को एक वरदान मानते थे। इसके कई कारण थे। पहला कारण तो यह था कि अंग्रेजी राज के आने से पूर्व इस देश में अशान्ति फैली हुई थी। वे कहते थे कि ब्रिटिश राज को कोई व्यक्ति कितना भी बुरा क्यों न समझे | परन्तु एक बात तो निर्विवाद रूप से सत्य है कि अंग्रेजों ने यहाँ आकर शान्ति स्थापित की है शान्ति के बिना कोई उन्नति सम्भव नहीं है। वे कहते थे कि “हमारे देश में किसी समय भी अव्यवस्था उत्पन्न करना कोई कठिन कार्य नहीं है, ऐसा तो यहाँ शताब्दियों तक रहा है परन्तु एक शताब्दी के काल में अंग्रेजों ने यहाँ जो शान्ति और व्यवस्था स्थापित की है, उसका कोई विकल्प खोज लेना कोई सरल कार्य नहीं होगा।”

(iv) संवैधानिक उपायों की श्रेष्ठता में दृढ़ विश्वास –

गोपाल कृष्ण गोखले यह मानते थे कि तत्कालीन परिस्थितियों में संवैधानिक उपाय आन्दोलनात्मक तरीकों से अधिक श्रेष्ठ है। संवैधानिक उपायों में उनका यह अभिप्राय था कि अंग्रेज शासकों को अपने कष्ट दूर करने के लिए आवेदन पत्र दिये जायें और भारत की जनता के कष्टों का उनको भली-भाँति ज्ञान कराया जाए। उनका सरकार की रचनात्मक आलोचना और निष्क्रिय प्रतिरोध में पूरा विश्वास था। वे शान्ति भंग किये बिना जलसे और जुलूसों द्वारा जनमत को प्रबल बनाने का भी समर्थन करने के लिए तैयार थे क्योंकि इससे ब्रिटिश शासकों पर दबाव पड़ता था। वे अंग्रेजों के विरुद्ध हिंसा और घृणा का प्रचार करने तथा शारीरिक शक्ति का प्रयोग करने (हमला करने या हत्या करने) के सख्त विरुद्ध थे। वे इस बात से भी सहमत नहीं थे कि ब्रिटिश शासन को समाप्त करने के लिए उसके शत्रुओं से किसी प्रकार का गठजोड़ किया जाए। वे कहते थे कि सरकार के विरुद्ध हिंसा और घृणा फैलाने तथा उसके शत्रुओं से गठजोड़ करने से सरकार की सहानुभूति जाती रहती है। और उससे जो कुछ प्राप्त किया जा सकता है, वह भी प्राप्त नहीं होता। इतना ही नहीं सरकार और अधिक निर्ममतापूर्वक व्यवहार करने लगती है। फलतः जनता के कष्ट बढ़ जाते हैं। वे जनता के कष्ट किसी तरह भी और अधिक बढ़ाने के पक्ष में नहीं थे क्योंकि जनता पहले ही अधिक पिसी हुई थी।

(v) राजनीति का आध्यात्मीकरण –

गोखले ने राजनीति को किसी प्रसिद्धि या पद अथवा धन की प्राप्ति के लिए नहीं अपनाया अपितु देश की सेवा के लिए ही अपनाया। उन्होंने भारत सेवक संघ के सदस्यों को भी राजनीतिक क्षेत्र में सत्य, सेवा और त्याग का मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित किया। बाद में गोखले की शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए महात्मा गांधी ने भी इन्हीं बातों को अपनाया और देशवासियों को इसी मार्ग पर चलने की सलाह दी। महात्मा गांधी ने गोखले को अपना राजनीतिक गुरु स्वीकार करते हुए कहा था- “गोखले ने मुझे इस बात की शिक्षा दी थी प्रत्येक भारतवासी को जो अपने देश से प्रेम का दम भरता हो सदा राजनीतिक क्षेत्र में काम करने का ध्यान रखना चाहिए उसे केवल जबानी जमा खर्च ही नहीं करना चाहिए बल्कि उसे देश के राजनीतिक जीवन तथा राजनीतिक संस्थाओं को आध्यात्मिक बनाना चाहिए। उन्होंने मेरे जीवन में उत्तेजना उत्पन्न की तथा वे अब तक उत्तेजना उत्पन्न कर रहे हैं। उस उत्तेजना से मैं अपने आपको पवित्र करना चाहता हूँ तथा अपने आपको आध्यात्मिक बनाना चाहता हूँ।”

(vi) पाश्चात्य शिक्षा में दृढ़ विश्वास-

गोखले पाश्चात्य शिक्षा को एक वरदान मानते थे। इसके विस्तार की आवश्यकता पर बल देते हुए गोखले ने कहा- “यदि जनता की शक्तियों को सभी क्षेत्रों में स्वतंत्रतापूर्वक प्रवाहित (बहने) का अवसर नहीं मिलता तो किसी भी महत्वपूर्ण प्रगति की कोई आशा करना व्यर्थ है। मेरा मत है कि भारत की जो वर्तमान दशा है, उसमें पाश्चात्य शिक्षा का सबसे बड़ा कार्य विद्या को प्रोत्साहन देना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना भारतीय मानस को पुराने विचारों की दासता से मुक्त करना और पाश्चात्य जीवन, विचार और चरित्र के सर्वोत्तम तत्वों को आत्मसात (ठीक रूप से मिलाना) है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए न केवल उच्चतम वरन् (बल्कि) सम्पूर्ण पाश्चात्य शिक्षा उपयोगी है।”

(vii) हिन्दू-मुस्लिम एकता तथा राष्ट्रीय दृढ़ता के समर्थक-

श्री गोपाल कृष्ण गोखले हिन्दू-मुस्लिम एकता के महान समर्थक थे। वे कहते थे कि यदि भारत की इन दो महान जातियों में अनेक प्रकार के मतभेद बने हैं, तो भारत का भविष्य अन्धकारमय है। इसलिए वे हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को परामर्श देते थे कि उन्हें सहिष्णुता तथा संयम से काम लेना चाहिए और अपने मतभेदों पर बल देने की अपेक्षा सहयोग, प्रेम और मैत्री पर अधिक बल देना चाहिए। वे हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न को धार्मिक दृष्टि से देखते थे और कहते थे कि कोई भी धर्म एक- दूसरे से बैर करना नहीं सिखाता है, इसलिए दोनों धर्मों के अनुयायियों को एक-दूसरे से प्रेम करना चाहिए। राष्ट्रीय एकता को दृढ़ करने के लिए गोखले भारतीयों की सर्वांगीण उन्नति पर विशेष बल देते थे। वे कहते थे कि जब तक भारतीयों की नैतिक, बौद्धिक और शारीरिक योग्यताओं का विकास नहीं होता, तब तक वे अपने राष्ट्र की उन्नति में अपना पूर्ण योग नहीं दे सकते हैं। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि नैतिक उत्थान, ऊँचे चरित्र, कठोर परिश्रम तथा त्याग से भारतीय अपने देश का भविष्य उज्जवल बना सकते हैं। इन विचारों को व्यावहारिक रूप देने के उद्देश्य से ही गोखले ने 12 जून, 1905 को ‘भारत सेवक संघ’ की नींव रखी।

(viii) मानव प्रगति के लिए स्वतंत्रता में विश्वास –

गोखले स्वतन्त्रता के महान् समर्थक थे। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि मानव जाति की आमतौर पर और पराधीन जाति की खास तौर पर प्रगति स्वतंत्रता के बिना नहीं हो सकती है। इसलिए वे अपने देश के लिए तत्कालीन परिस्थितियों में जितनी भी अधिक से अधिक स्वतंत्रता सम्भव थी, चाहते थे। उन्होंने लार्ड कर्जन के प्रशासन की कटु आलोचना की क्योंकि उसने कुशलता के लिए स्वतंत्रता का बलिदान कर दिया था। गोखले ने इसी आधार पर लार्ड कर्जन के भारतीय विश्वविद्यालय विधेयक का विरोध किया क्योंकि इससे अंग्रेजों का अनावश्यक नियन्त्रण विश्वविद्यालयों पर बढ़ता था। गोखले ने जीवन भर अंग्रेजों के दमनकारी कानूनों का विरोध किया।

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