राजा राममोहन राय के योगदान | Social thoughts of Raja Rammohan Roy in Hindi

राजा राममोहन राय के योगदान | Social thoughts of Raja Rammohan Roy in Hindi
राजा राममोहन राय के योगदान | Social thoughts of Raja Rammohan Roy in Hindi

राजा राममोहन राय के योगदान का मूल्यांकन कीजिये।

राजा राममोहन राय के योगदान की दृष्टि से हम निसंदेह रूप से यह कह सकते हैं कि वे एक अत्यन्त दूरदर्शी एवं उच्च कोटि के बौद्धिक चरित्र के व्यक्ति थे। उन्होंने अपने गरिमापूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व से भारत में धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में नवजागरण का शंख फूंका और उनमें प्रगतिशील सुधारों हेतु जीवनपर्यन्त अथक परिश्रम और प्रयास किया। उनके इस प्रयास और परिश्रम के कारण ही उन्हें भारतीय अतिहास के विद्वानों द्वारा भारतीय नवजागरण का अग्रदूत कहकर पुकारा गया है। सामाजिक सेवा में उनके द्वारा दिये गये योगदानों का आकलन निम्नवत् किया जा सकता है-

(1) धर्म सुधार एवं सभी धर्मों की एकता पर बल- राजा राममोहन राय ने जीवनपर्यन्त धर्म में सत्य की तलाश की। इस हेतु उन्होंने विश्व के सभी प्रमुख धर्मो हिन्दू, इस्लाम और ईसाई धर्म का गहन एवं तुलनात्मक अध्ययन किया। फलस्वरूप वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सभी धर्म चुनियादी रूप से एक हैं तथा एकेश्वरवाद का सन्देश देते हैं। इसी धार्मिक भावना से प्रेरित होकर उन्होंने सन् 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना की तथा प्रतिपादित किया कि ईश्वर एक है, अद्वैत है, निराकार है, शाश्वत है, अज्ञेय और नित्य है। अतः इसी आधार पर उसकी उपासना-आराधना की जानी चाहिए। इस प्रकार उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना के माध्यम से ईश्वर की इसी रूप में पूजा किये जाने का सन्देश दिया। वे ईश्वर और व्यक्ति के मध्य पंडे-पुरोहित, मुल्ला-मौलवी आदि दलालों या बिचौलियों की आवश्यकता अनुभव नहीं करते थे। इसी आधार पर उन्होंने अवतारवाद, बहुदेववाद तथा मूर्तिपूजा का निषेध ही नहीं किया वरन् उसे व्यर्थ का आडम्बर, पाखण्ड और धार्मिक अनाचार की संज्ञा देकर उसका खण्डन भी किया।

सभी धर्मों की एकता में विश्वास करने के कारण वे धार्मिक सहिष्णुता को धर्म का एक आवश्यक अंग मानते थे। इस आधार पर धार्मिक विभाजनों और संघर्षों को अनुचित और अनुपयोगी मानकर उनका विरोध करते थे। सभी मनुष्यों को परमपिता ईश्वर की सन्तान मानकर वे सम्पूर्ण मानव जाति की एकता पर बल देते थे। विश्व बंधुत्व उनकी धार्मिक धारणा का एक आवश्यक अंग था जिसका वे जीवनपर्यन्त प्रचार-प्रसार कर प्रतिपादन करते रहे। राय स्वयं धार्मिक सहिष्णुता के जीवन्त प्रतिरूप थे तथा सभी धर्मों को समान आदर और समभाव से देखते थे। इस दृष्टि से सुधारवादी हिन्दू उन्हें हिन्दू, मुसलमान और ईसाई उन्हें ईसाई मानते थे। राय सच्चे रूप से धर्म को एक जोड़ने वाला, न कि तोड़ने वाला तत्व मानते थे। उनके अनुसार धर्म मनुष्य को मनुष्य से दूर [ले जाना वाला तत्व नहीं वरन् निकट लाने वाला तथा उनको एकता के सूत्र में पिरोने वाला तत्व था।

(2) समाज सुधार आन्दोलन के प्रेणता- राजा राममोहन राय ने अपने सुधारवादी विचारों से प्रेरित होकर भारतीय मुख्य रूप से हिन्दू समाज में उत्पन्न विकृतियों और बुराइयों के उन्मूलन हेतु आन्दोलन प्रारम्भ कर नवजागरण की अलख जगायी। उन्होंने जहाँ भारतीयों को अपने समृद्ध प्राचीन गौरवशाली अतीत से परिचित कराया, वहीं उन्होंने विज्ञान-आधारित व्यावहारिक पश्चिमी विचारों को अपनाने के लिए भी प्रेरित किया। इस दृष्टि से उनका दृष्टिकोण समन्वयवादी था। वे भारत के प्राचीन समृद्ध गौरव तथा पश्चिम के वैज्ञानिक व्यावहारिक प्रगतिशीलता में सामंजस्य स्थापित कर उसको उनके नवजीवन की आधारशिला बनाना चाहते थे। अतः अपनी इस मान्यता के पूर्ण होने की राह में जो भी अड़चनें थीं, व्यवधान थे, उन्होंने उनका खुलकर विरोध किया। जाति प्रथा उन्होंने एक विवेकहीन तर्क विरोधी व्यवस्था घोषित किया तथा उसे गुलामी का मुख्य कारण मानकर उसके उन्मूलन पर जोर दिया। इस दृष्टि से उनकी मान्यता थी कि मनुष्य की पहचान जन्म से नहीं, कर्म से होनी चाहिए। इसी आधार पर उसे श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ, कुलीन-अकुलीन ठहराया जाना चाहिए। एक न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की स्थापना के लिए जाति-व्यवस्था का उन्मूलन आवश्यक है। अत: उन्होंने उसके कुप्रभावों से भारतीय समाज को मुक्त करने कि लिए जाति प्रथा विरोधी आन्दोलन चलाया तथा मनुष्य मनुष्य की इस दृष्टि से समानता पर जोर दिया। इसी तरह उन्होंने समाज में फैले तथा उसकी प्रगति में अवरोधक का कार्य करने वाले विभिन्न सामाजिक अंधविश्वासों, पाखंडों, संकीर्णताओं और अनुदारताओं का भी विरोध किया तथा उनके स्थान पर विवेकशीलता, बौद्धिकता, उदारता आदि मूल्यों को प्रतिष्ठित किये जाने पर बल दिया, ताकि भारतीय समाज प्राचीनता की कूपमण्डूकता से मुक्त होकर आधुनिक प्रगति के खुले आकाश में विचरण ही नहीं कर सकें वरन् अपनी सर्वांगीण उन्नति के लक्ष्य को भी प्राप्त कर सके।

स्त्री-दशा सुधार-

उनके समय में सती-प्रथा, बहु-विवाह प्रथा, विधवा-विवाह विरोध, बाल-विवाह प्रथा, अशिक्षा तथा सम्पत्ति में उत्तरधिकारविहीन अवस्था आदि विद्यमान थी। राममोहन राय ने स्त्रियों की इस गिरी हुई दशा को समाज के लिए चिन्ताजनक ही नहीं माना वरन् उसकी प्रगति में मुख्य अवरोधक के रूप में भी स्वीकार किया तथा उनके उन्मूलन हेतु प्रयत्न करना उन्होंने अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया, इस हेतु उन्होंने निम्नलिखित कार्य किये-

1. सती-प्रथा उन्मूलन- इस सती-प्रथा के अनुसार पति की मृत्यु होने पर उसकी पत्नी को उसकी इच्छा के विरुद्ध पति की चिता पर रखकर अग्नि को समर्पित कर दिया जाता था। राममोहन राय ने इस क्रूर और अमानुषिक प्रथा के उन्मूलन के लिए आवाज बुलन्द की। फलस्वरूप सन् 1829 में तत्कालीन भारतीय गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक के द्वारा राजकीय अधिनियम बनाकर इसे अवैध घोषित कर दिया गया।

2. बहु-विवाह विरोध- स्त्रियों की दशा में आवश्यक सुधार करने हेतु राममोहन राय ने इस अमानवीय प्रथा के उन्मूलन के लिए यह माँग की कि इस दृष्टि से ऐसी व्यवस्था की जाये जिससे कि एक पुरुष बिना सम्बन्धित मजिस्ट्रेट की अनुमति के अपनी पहली पत्नी के जीवित होते हुए किसी दूसरी स्त्री से विवाह न कर सके। उनकी इस माँग के कारण शनैः-शनै: समाज में ऐसा वातावरण बनने लगा जिससे बहुविवाह प्रथा को एक सामाजिक बुराई समझा जाकर उसे हतोत्साहित किया जाने लगा।

3. विधवा विवाह समर्थन- राय के युग में विधवा स्त्री को अपने परिजनों के हाथों विभिन्न प्रकार के अन्याय, अत्याचार तथा शोषण का शिकार होना पड़ता था तथा उसे बहुत ही दीन-हीन अवस्था में जीवन व्यतीत करना पड़ता था। इस समस्या का निदान उसके चाहने पर पुनर्विवाह करने का अधिकार ही था। राजा राममोहन राय ने इसका समर्थन किया और वे इस समस्या की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट करने में भी सफल हुए।

4. स्त्री-शिक्षा का समर्थन- राममोहन राय के समय में भारत में स्त्री-शिक्षा का स्तर बहुत ही निम्न था। अशिक्षित होने के कारण स्त्रियाँ विभिन्न तरह के शोषण का शिकार थीं। अत: उन्हें इस शोषण से बचाने के लिए उन्होंने उनकी शिक्षा पर जोर दिया। स्त्री-मुक्ति की दृष्टि से यह एक जरूरी कदम था जिसे उठाने के लिए उन्होंने इस सम्बन्ध में अपने विचारों द्वारा समाज को प्रेरित किया।

5. स्त्री सम्पत्ति उत्तराधिकार का समर्थन- राममोहन राय के समय में हिन्दू उत्तराधिकार नियम के अनुसार स्त्रियों को अपनी पैतृक सम्पत्ति में उत्तराधिकार के रूप में उसका कुछ भी अंश प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। राममोहन राय ने उन्हें यह अधिकार दिलाने के लिए व्यापक पैमाने पर प्रयत्न किये तथा उत्तराधिकार सम्बन्धी प्राचीन ग्रन्थों का हवाला देते हुए स्त्रियों के पैतृक सम्पत्ति में उत्तराधिकार का समर्थन किया। आवश्यक संशोधन द्वारा यह अधिकार प्राप्त हो सका।

राजनीतिक चिन्तन

राजा राममोहन राय भारत पर ब्रिटिश शासन के समर्थक थे तथा उसके निरन्तर बने रहने को भारत के हित में मानते थे लेकिन राजनीतिक दृष्टि से वे उसका अधिकाधिक भारतीयकरण करना चाहते थे, ताकि अन्ततः भारतीय स्वतन्त्रता का लक्ष्य प्राप्त कर सकें। अतः वे ब्रिटिश शासन के समर्थक होते हुए भी उसकी विकृतियों और विसंगतियों के विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द करते रहते थे। वे न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के प्रबल पक्षधर थे तथा इस हेतु शक्ति-पृथक्करण के सिद्धान्त की क्रियान्विति को आवश्यक मानते थे। इस हेतु उन्होंने जूरी प्रथा को प्रारम्भ किये जाने, न्यायाधीश और मजिस्ट्रेट के पद पृथक किये जाने तथा न्यायालय की खुली कार्यवाही का समर्थन किया, ताकि लोगों को निष्यक्ष न्याय प्राप्त हो सके। साथ ही उन्होंने पंचायत-व्यवस्था को पुनर्जीवित करने, उच्च पदों पर अधिकाधिक भारतीयों की नियुक्ति हेतु तथा भारतीय परम्पराओं के अनुसार विधि निर्माण हेतु व्यवस्था किये जाने की भी माँग की।

महान शिक्षाशास्त्री- राजा राममोहन राय प्राचीन शिक्षा पद्धति के स्थान पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित पश्चिमी शिक्षा पद्धति के समर्थक थे। उनकी इस दृष्टि से यह दृढ़ मान्यता थी कि भारत का भावी विकास इसी पद्धति के प्रयोग के माध्यम से सम्भव है। अत: उन्होंने मात्र संस्कृत की शिक्षा प्रदान करने वाली शासन द्वारा लागू की जाने वाली शिक्षा पद्धति का विरोध किया तथा उसके स्थान पर विभिन्न वैज्ञानिक विषयों, जैसे-भौतिक-शास्त्र, रसायन शास्त्र, भूगोल – शास्त्र, ज्योतिष-शास्त्र, गणित-शास्त्र एवं व्याकरण आदि विषयों तथा अंग्रेजी भाषा और साहित्य की शिक्षा देने वाली पश्चिमी शिक्षा प्रणाली को लागू करने का प्रबल पक्ष लिया।

आर्थिक सुधार सम्बन्धी योगदान- राजनीतिक व्यवस्था में ही नहीं, आर्थिक व्यवस्था में भी वे आर्थिक सुधार के प्रबल पक्षपाती थे। उनके द्वारा की जाने वाली आर्थिक सुधारों की माँग के पीछे प्रमुख लक्ष्य जनता को विशेषकर कृषक वर्ग को जमींदारों द्वारा किये जाने वाले शोषण से बचाना था।

अंतर्राष्ट्रीय एवं मानववाद के समर्थक- राजाराममोहन राय ‘वसुधैव कुटुम्बकम् में पूर्ण आस्था रखते थे। वे समस्त पृथ्वी को एक परिवार मानते थे। विश्व के किसी कोने पर यदि मानवीय स्वतंत्रता पर आघात होता है तो वे व्यथित हो जाते थे जबकि मानव स्वतंत्रता के अन्त पर वे प्रसन्न हो जाते थे। वे अन्तर्राष्ट्रीयवाद और मानवतावाद की साकार मूर्ति थे। उनका मानना है कि “सम्पूर्ण मानव जाति एक बड़ा परिवार है तथा उसमें रहने वाली विभिन्न जातियाँ प्रजातियाँ तथा उनके द्वारा निर्मित राष्ट्र उसकी शाखायें-प्रशाखाएँ मात्र हैं।” अपनी इसी मानवतावादी अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता के कारण वे शक्ति के समर्थक व युद्ध के विरोधी थे।

मूल्यांकन- राजा राममोहन राय ने अपने प्रगतिशील व्यक्तित्व और कृतित्व द्वारा आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं शैक्षिक क्षेत्र में गुलामी के अंधकार के गर्त में डूबे हुए भारतीय राष्ट्र की अनुपम और अकथनीय सेवा की। अपने इन्हीं कार्यों की वजह से वह भारतीय पुनर्जागरण के जनक या अग्रदूत कहे जाते हैं। नन्दलाल चटर्जी के अनुसार राजा राममोहन राय प्रतिक्रिया एवं प्रगति के मध्य बिन्दु थे। वास्तव में, वे भारतीय पुनर्जागरण के प्रभात-तारा थे। नक्वणे का कहना है “उनकी दृष्टि विकृत रूढ़ियों और रीति-रिवाजों से धुंधली नहीं पड़ी थी। उनके उदार हृदय ने और उतने ही उदार मन ने उन्हें पूरब को हीन माने बिना ही पश्चिम का संदेश स्वीकार करने के लिए अनुप्रेरित किया।” इस प्रकार राजा राममोहन राय एक अत्यन्त दूरदर्शी और वैदिक व्यक्ति थे जिन्होंने भारत में सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक सुधार के क्षेत्र में नवजागरण का शंख फूंका।

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