डा0 अम्बेडकर के राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद पर विचार

डा0 अम्बेडकर के राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद पर विचार
डा0 अम्बेडकर के राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद पर विचार
डा0 अम्बेडकर के राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद पर विचारों की समीक्षा कीजिये।

राष्ट्रवाद और अम्बेडकर – डा0 अम्बेडकर यद्यपि एक अनन्य राष्ट्रवादी और देशभक्त थे लेकिन वे कांग्रेसी छाप के राष्ट्रवादी नहीं थे। फलतः राष्ट्र आन्दोलन में उनकी भूमिका कांग्रेस की भूमिका से मेल नहीं खाती थी और इसलिए कांग्रेस के प्रति प्रतिबद्ध इतिहासकारों द्वारा राष्ट्र आन्दोलन में जो कांग्रेस से स्वतंत्र उनकी भूमिका रही, उसे लेकर उनके राष्ट्रवाद तथा राष्ट्र-प्रेम को लेकर कुछ भ्रामक धारणाएँ ही प्रतिपादित नहीं की गर्यो वरन् उनकी देशभक्ति को लेकर भी आंशकाएँ प्रगट की गर्यो। उनके सम्बन्ध में इस तरह की धारणाएँ प्रतिपादित किये जाने के निम्नलिखित कारण थे-

प्रथम- डा. अम्बेडकर राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की तुलना में दलित वर्ग की स्वतन्त्रता को प्राथमिकता प्रदान करते थे। इस दृष्टि से उनकी मान्यता थी कि बिना सामाजिक समानता की स्थिति को स्थापित किये हुए यदि राष्ट्रीय स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली जाती है तो दलित वर्ग का सवर्ण समाज द्वारा किया जाने वाला शोषण न तो समाप्त किया जा सकेगा और न उन्हें सामाजिक न्याय प्राप्त हो सकेगा। अतः राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के पूर्व सामाजिक स्वतन्त्रता की स्थिति स्थापित की जानी चाहिए तथा उसके बाद ही देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता को प्राप्त किया जाना चाहिए। इस तरह उनकी प्राथमिकता सामाजिक स्वतन्त्रता के प्रति थी तथा उसके बाद ही देश की राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आती थी। इसके विपरीत, कांग्रेस का मत था कि देश के लिए पहले राजनीति या राष्ट्रीय स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली जाय तथा बाद में उसके माध्यम से सामाजिक स्वतन्त्रता तथा समानता की स्थिति प्राप्ति का प्रयास किया जाय।

द्वितीय – वे सामान्यतः कांग्रेस की नीतियों से सहमत नहीं थे। विशेषकर उसके द्वारा जो ‘मुस्लिम तृष्टिकरण’ की नीति अपनाई जा रही थी, वह उनके अनुसार देश हित में नहीं थी। यहीं नहीं, कांगेस द्वारा जो देश की स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन चलाये जा रहे थे, उनसे भी वे सहमत नहीं थे, विशेषकर सन् 1942 का ‘भारत छोडो’ आन्दोलन। उनका मत था कि यह आन्दोलन पाश्विक फासीवाद के विरुद्ध स्थिति को कमजोर करने वाला है। अतः उन्होंने इस आन्दोलन को ‘गैर जिम्मेदाराना, पागलपन और राजनीतिक दिवालियापन’ की संज्ञा दी और उसकी कटु आलोचना की।

तृतीय – उन्होंने मुस्लिम लीग के नेतृत्व में मुस्लिम समाज द्वारा देश विभाजन के आधार पर पाकिस्तान के लिए चलाये जाने वाले आन्दोलन का यह कहकर समर्थन किया कि यदि राष्ट्रीय आत्म निर्णय के सिद्धांत के अनुसार मुस्लिम समुदाय हिन्दुओं के साथ एक राष्ट्र के रूप में नहीं रहना चाहता है तो भावी शान्तिपूर्ण जीवन के उद्देश्य से देश-विभाजन तथा पाकिस्तान की माँग को स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। प्रारम्भ में यद्यपि कांग्रेस इसके पक्ष में नहीं थी लेकिन बाद में भारी खून-खराबे की परिस्थितियों से बाध्य होकर उसे पाकिस्तान की माँग को स्वीकार करना पड़ा। यदि प्रारम्भ में ही इस माँग को डा. अम्बेडकर के समर्थन के अनुसार कांग्रेस द्वारा स्वीकार कर लिया जाता तो शायद वह सब खून-खराबा और कष्ट नहीं भुगतना पड़ता जो बाद में इस माँग को स्वीकार किये जाने के कारण दोनों समुदायों को भुगतना पड़ा।

डा. अम्बेडकर के इन विचारों के कारण कांगेस द्वारा उन पर राष्ट्र विरोधी और ब्रिटिशभक्त होने का आरोप लगाया गया लेकिन ये आरोप सही नहीं है क्योंकि उनके ये विचार तत्कालीन राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थतियों के वस्तुपरक विश्लेषण पर आधारित थे। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर फासीवाद का खतरा इतना बड़ा था कि यदि कांग्रेस उस समय मित्र राष्ट्र का सहयोग करती तो युद्ध के पश्चात ब्रिटेन के लिए अपनी जर्जर स्थिति के कारण भारतीय स्वतन्त्रता की माँग को अस्वीकार करना सम्भव नहीं होता, जैसी कि उसे युद्धोपरान्त, युद्ध में विजई होकर भी करनी पड़ी थी। विश्व जनमत भारतीय स्वतन्त्रता के पक्ष में हो चुका था और ब्रिटेन के लिए अब उसकी और अधिक अवहेलना करना सम्भव नहीं था। राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान की माँग शनैः-शनैः एक यथार्थवादी राजनीतिक माँग बन चुकी थी जिसकी सत्यता बाद में कांग्रेस को नहीं चाहते हुए भी उसे स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा था। देश विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना यदि हिंसक के बजाय शान्तिपूर्ण तरीके से होती तो शायद भारत-पाक सम्बन्धों में आज जो कटुता है, वह नहीं होती।

डा. अम्बेडकर अपने दृष्टिकोण से न तो ब्रिटिश शासक के समर्थक थे और न देश की एकता और अखण्डता के विरुद्ध उनके मस्तिष्क में एक स्वतन्त्र अखण्ड, और समतामूलक राज्य की रूपरेखा स्पष्ट रूप से विद्यमान थी जिसका प्रमाण है उनके द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय दिया गया देशी रियासतों को परामर्श। उन्होंने उनके शासकों को सम्बोधित करते हुए कहा कि “उन्हें अपनी प्रभुसत्ता भारतीय संघ को समर्पित कर देनी चाहिए। उनका स्वतन्त्र रहकर संयुक्त राष्ट्र संघ से मान्यता तथा सुरक्षा प्राप्त करने का विचार कल्पना लोक में रहने के समान है।” इसी तरह से भारत की एकता और अखण्डता का समर्थन करते हुए उन्होंने 13 दिसम्बर, 1946 में संविधान सभा में भाषण देते हुए कहा कि “आज हम भले ही राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से टूट गये हों, फिर भी परिस्थितियों के अनुकूल होते ही हमारी एकता को कोई रोक नहीं सकेगा। चाहे आज मुस्लिम लीग भारत-विभाजन हेतु आन्दोलन चला रही है, फिर भी एक दिन ऐसा आयेगा जब वह यह अनुभव करेगी कि अखण्ड भारत ही हम सभी के हित में है। ” उन्होंने यह भी विश्वास व्यक्त किया कि “सबको साथ लेकर चलने और एकता की दिशा में आगे बढ़ने की हममें क्षमता है, शक्ति है, बुद्धिमत्ता है। हम इसे व्यवहार में सिद्ध करने का प्रयास करेंगे।” डा. अम्बेडकर का यह भाषण ‘ अखण्ड भारत की घोषणा’ के समान था। भारतीय एकता और अखण्डता के इसी अभिमत के कारण कांग्रेस प्रशासित संविधान सभा के वे पहले परामर्शदाता तथा बाद में संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष नियुक्त किये गये।

डा. अम्बेडकर द्वारा प्रतिपादित राष्ट्रवाद तथा मुख्यतः भारतीय राष्ट्रवाद सामाजिक एकत्व की भावना पर आधारित था, एक ऐसा सामाजिक एकत्व, जो वर्ण, जाति, धर्म, रंग, लिंग, आदि के भेदभाव से मुक्त हो तथा पूर्णतः सामाजिक स्वतन्त्रता समानता और बन्धुत्व भाव पर आधारित हो। वे एक ऐसे ही सामाजिक एकत्व पर आधारित तथा हर प्रकार के भेदभाव से रहित भारतीय राष्ट्र की कल्पना ही नहीं करते थे वरन् उसे व्यावहारिक रूप भी प्रदान करना चाहते थे। उनके द्वारा तैयार भारतीय संविधान का प्रारूप तथा संविधान सभा द्वारा पारित संविधान उनके इस अभिमत का एक जीता-जागता उदाहरण है जिसके अनुसार वर्तमान समय में स्वतन्त्र भारत शासित प्रशासित है। डा. अम्बेडकर के इसी राष्ट्रवादी अभिमत का समर्थन करते हुए डा. बी. पी. वर्मा का कथन है कि “इसमें संदेह नहीं, वे एक देश भक्त थे और राष्ट्रीय एकीकरण के विरोधी नहीं थे। कोई भी उनके इस विचार का विरोध नहीं कर सकता कि अस्पृश्यों पर हिन्दू समाज द्वारा आरोपित घोर अपमान जनक स्थितियों का विरोध और निराकरण ब्रिटिश शासन से देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता की प्राप्ति की तुलना में एक अधिक आवश्यक कार्य था।” अतः राष्ट्रीय आधार पर वे भारत की ब्रिटिश दासता से मुक्ति के समर्थक थे लेकिन इस हेतु पूर्व शर्त के रूप में दलित वर्ग की सामाजिक दासता से मुक्ति को आवश्यक मानते थे। कांग्रेस और उनके दृष्टिकोण में यही मौलिक अन्तर था अन्यथा वे भी एक पक्के देश भक्त के रूप में भारतीय स्वतन्त्रता के उसी तरह से समर्थक थे जिस तरह से कि कांग्रेस जन थे।

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