धर्मनिरपेक्षता से आप क्या समझते हैं? What do you understand by secularism?

धर्मनिरपेक्षता से आप क्या समझते हैं? What do you understand by secularism?
धर्मनिरपेक्षता से आप क्या समझते हैं? What do you understand by secularism?

धर्मनिरपेक्षता से आप क्या समझते हैं?

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ एंव स्वरूप- धर्मनिरपेक्षता से तात्पर्य एक सोचने समझने के तरीके से है जिससे हम धार्मिक विश्वासों से अछूते रहकर सभी वस्तुओं को बौद्धिकता के आधार पर देखने का प्रयत्न करते हैं। संक्षेप में यह धारणा वर्ग, जाति तथा राज्य के कार्यकलापों में धार्मिक हस्तक्षेप की विरोधी है। रसेल के अनुसार धर्मनिरपेक्ष राज्य अर्मूत एवं स्पष्ट सिद्धांतों से ऊपर उठकर मानव के व्यक्तित्व व मूल्यों को स्वीकार करता है उसी को अपना आधार मानता है। वह एक ही धर्म में विश्वास करता है और वह धर्म है मानव धर्म ।

धर्मनिरपेक्षता के विविध रूप हैं। भारतीय संविधान निर्माताओं का उद्देश्य धर्म के विरुद्ध सामान्य उदासीनता नहीं था, किन्तु सब धर्मों व सम्प्रदायों के प्रति सहनशीलता तथा एक दूसरे के धार्मिक विश्वासों व कार्यों के प्रति आदर की भावना थी। भारतीय धर्मनिरपेक्षता, अन्धविश्वासों व रूढ़ियों के जनहित में नियन्त्रण के पक्ष में है।

नेहरू की धर्म निरपेक्षता –

पं. नेहरू धर्म की कट्टरता से चिढ़ते थे। आत्मा और परमात्मा पर विचार करने के लिए उनके पास समय न था । हिन्दू होते हुए भी वे हिन्दू धर्म के पचड़े में नहीं पड़े थे। उनके लिए सब धर्म समान थे। भारतीय इतिहास के अध्ययन से उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि “भारत ने अपने धार्मिक विद्वेष एवं साम्प्रदायिक फूट से अपनी गौरवमयी संस्कृति को बड़ी हानि पहुँचायी है।” उन्होंने क्या सभी कांग्रेस के नेताओं ने, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, सभी के अन्दर सारी बुराइयाँ देखों और उन्हें दूर करने का प्रबन्ध किया। उन्होंने एक स्थान पर लिखा है कि “मैं किसी भी मतमतान्तर अथवा धर्म से जकड़ा हुआ नहीं हूँ, किन्तु मैं मानव के नैसर्गिक आध्यात्मिक स्वरूप में विश्वास अवश्य करता हूँ। इसे चाहे कोई धर्म कहे, अथवा न कहे, मैं व्यक्ति की सहज गरिमा में विश्वास करता हूँ। मेरा यह भी विश्वास है कि प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर दिया जाये। मुझे ऐसे सभ्य समाज में पूर्ण विश्वास है। इतिहास में धर्म-युद्धों के नाम पर कितना रक्त बहा है ? भारत में भी धर्म के नाम पर एक ओर लाखों स्त्रियाँ एवं पुरुष काट डाले गये और दूसरी ओर लोगों ने जिन्दा जल जाना पसन्द किया पर धर्म नहीं छोड़ा। पं. नेहरू दोनों ही की निन्दा करते थे और धर्म को लड़ाई-झगड़े की जड़ समझ कर त्यागने के पक्ष में थे। भारत में स्वतन्त्रता आन्दोलन के काल में ही अनेक साम्प्रदायिक दंगे हुए। इन दंगों से बचने के लिए पं. नेहरू ने भारत का विभाजन स्वीकार किया। आगे साम्प्रदायिक दंगे न हों अतः भारत को एक धर्म निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया।

पं. नेहरू लिखते हैं कि “इतिहास में समय-समय पर लम्बी अवधि तक अत्यन्त कलह प्रिय होना, अलग-अलग रहने की भावना का होना हमारा बड़ा दुर्भाग्य रहा जिसके परिणामस्वरूप भारत की महान शक्ति आन्तरिक कलह में यों ही व्यर्थ गयी। निश्चय ही, हमें भारत के इतिहास से कुछ शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। हमने मानवीय प्रयासों के प्रत्येक क्षेत्र-विचार क्रियाशीलता, कला, साहित्य, संगीत में महान पुरुषों को जन्म दिया, फिर भी हम उनकी महानता का लाभ उठाने में असफल रहे, क्योंकि हमारे बीच कलह के कारण अलग-अलग चलने की भावना रही।”

नेहरू जी गांधी जी के समान ही हिन्दू-मुस्लिम एकता के बिना स्वतन्त्रता आन्दोलन की सफलता को संदिग्ध मानते थे। अतः वे हिन्दू-मुसलमानों की एकता में विश्वास रखते थे। वे इस एकता के अभाव में देश की स्वतंत्रता को सदैव खतरे में समझते थे। एकता की कमी का अर्थ है- देश की बरबादी। एक स्थान पर उन्होंने बोलते हुए कहा था कि “किसी भी राष्ट्र का सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य अपनी स्वतन्त्रता को सुदृढ़ करना तथा सुरक्षित रखना है। किसी भी गतिविधि को मापने का यही मापदण्ड है। यदि हम दल, राज्य, भाषा अथवा जाति जैसी अन्य बातों को महत्व देते रहे और अपने देश को भूल गये तो हमारा सर्वनाश होगा। इन सबका अपना-अपना उचित स्थान है। पं. नेहरू का धर्म राष्ट्रधर्म अर्थात देशप्रेम था। इससे बढ़कर वे न जाति को मानते थे, न दल और न भाषा को। परन्तु वे केवल राजनीतिक एकता को पर्याप्त नहीं मानते थे। वे देश की भावनात्मक एकता को मानने पर बहुत जोर देते थे। इस विषय में उनके शब्द हैं- “राजनीतिक एकीकरण कुछ सीमा तक हो ही चुका है, किन्तु मैं तो चाहता हूँ कि वह इससे कुछ अधिक है। भारतीय लोगों का भावानात्मक एकीकरण जिससे हम सब मिलकर संयुक्त हो सके और एक शक्तिशाली राष्ट्रीय इकाई बन जायें तथा साथ ही अपनी विलक्षण विविधता को बनाये रखें (यह कैसे सम्भव है)। मैं नहीं चाहता कि इस विविधता को समाप्त किया जाये। किन्तु हमें छोटी-छोटी पारस्परिक कलहों में उलझकर अपने आपको खो न देना चाहिए।”

नेहरू धर्म-निरपेक्षता के समर्थक थे। कुछ लोग धर्म निरपेक्षता का अर्थ, धर्महीनता, विधर्मता एवं नास्तिकता लगाते हैं, पर पं. नेहरू के अनुसार “धर्म निरपेक्षता का अर्थ धर्म हीनता है। इसका अर्थ सभी धर्मों के प्रति सादर आदर भाव तथा सभी व्यक्तियों के लिए समान अवसर है चाहे कोई भी व्यक्ति किसी धर्म का अनुयायी क्यों न हो। इसलिए हमें अपने दिमाग में अपनी संस्कृति के इस आवश्यक पहलू को सदा ध्यान में रखना चाहिए, जिसका आज के भारत में सबसे अधिक महत्व है।” आगे पं. नेहरू ने धर्म निरपेक्षता का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा कि सभी धर्मों को पूर्ण स्वतन्त्रता दी जाये, राज्य किसी धर्म के मामले में हस्क्षेप न करें। 1951 में उन्होंने कहा कि सभी धर्मों को संरक्षण तथा ‘एक धर्म को दूसरे के विरुद्ध प्रोत्साहन न देना साथ-साथ “राज्य को अपना कोई धर्म न रखना ही धर्म-निरपेक्षता है।” उन्होंने घोषणा की कि “इस देश में किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिकता सहन न करेंगे। हम एक ऐसे स्वतन्त्र धर्म निरपेक्ष राष्ट्र का निर्माण कर रहे हैं, जिसमें धर्म तथा मत को पूरी स्वतन्त्रता तथा समान आदरभाव प्राप्त होगा और प्रत्येक नागरिक को समान स्वतन्त्रता तथा समान अवसर की सुविधा होगी।”

महात्मा गांधी ने धर्म का सार पं. नेहरू को बताया था। नेहरू सत्य को ही धर्म और सत्य को ही ईश्वर मानते थे पर वे अन्धविश्वासी न थे। वे प्राचीन रूढ़ियों एवं प्रथाओं का पालन करना धर्म नहीं मानते थे। जीवन के प्रति उनका प्रेम पूर्ण वैज्ञानिक था। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि “भारत में तथा अन्यत्र भी धर्म या कर्म से कम संघटित धर्म को देखकर मुझे अत्यन्त घृणा होती है और मैनें प्रायः इसकी भर्त्सना की है, तथा इसको पूर्णतया नष्ट कर देने की इच्छा की है। ऐसा प्रतीत होता है कि इसने प्रायः सदैव अन्धवश्वासस, प्रतिक्रिया, शोषण और और विशेष हितों को प्रश्रय दिया है। पं. नेहरू धर्म का अर्थ सत्य की खोज लगाते थे। उनके अनुसार, “यदि धर्म का आशय पूर्ण निष्ठा के साथ सत्य की खोज करना, सत्य के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देने को उद्यत रहना है, तो उन्हें धर्म की महान सेना का एक मजबूत सिपाही बनने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं होगी। पं. नेहरू धर्म को मानते थे परन्तु उनके धर्म में पाखण्ड का कोई स्थान न था। उन्होंने किसी व्यक्ति से अधार्मिक बनने के लिए नहीं कहा। वह धर्म को जीवन की एक आवश्यकता मानते थे। उन्होंने कहा था कि, “धर्म में वह तत्व है जो मनुष्य के हृदय की आन्तरिक अभिलाषा को तृप्त करने की शक्ति रखता है। यदि धर्म में यह गुण न होता तो वह इस प्रकार की महान शक्ति कभी नहीं बन पाता और असख्य व्याकुल आत्माओं को शान्ति और सान्त्वना नहीं दे पाता।” नेहरू जी के धर्म का अर्थ संकीर्णता, सहिष्णुता तथा रूढ़िवाद से रहित था तथा वह उसे सच्चा एवं वैज्ञानिक आधार पर मानते थे। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि “मैं कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं हैं, परन्तु मैं किसी वस्तु में विश्वास अवश्य करता हूँ- आप उसे धर्म कह सकते हैं या जो कुछ चाहे कह सकते हैं ये मनुष्य के सामान्य स्तर को ऊँचा उठाती है और मनुष्य के व्यक्तित्व को आध्यात्मिक गुण तथा नैतिक गहराई का एक नवीन प्रमाण प्रदान करती है। अब जो भी वस्तु मनुष्य को उसको क्षुद्रताओं से ऊपर उठाने में सहायता देती है, चाहे वह कोई देवता हो अथवा कोई पाषाण प्रतिमा हो, वह शुभ है और उसे ठुकराया नहीं जाना चाहिए।

पं. नेहरू ने धर्म-निरपेक्ष राज्य एवं धर्म-निरपेक्षता की एक बहुत उदार व्याख्या की है। उन्होंने धर्म निरपेक्षीकरण की प्रक्रिया को सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में क्रियान्वित करने का प्रयास किया है। उनकी यह प्रबल इच्छा थी कि व्यक्ति अपने सामाजिक नियमों में, विवाह में. उत्तराधिकार के नियमों में दीवानी और फौजदारी न्याय में तथा अन्य इसी प्रकार की बातों में धार्मिक विश्वासों से बहुत ऊपर उठें। वे सम्पर्ण भारत के लिए एक-सा कानून एवं नियम बनाना चाहते थे।

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