नेहरू जी के राजनीतिक विचारों की विवेचना कीजिये।
नेहरू जी के राजनीतिक विचार
नेहरू का राष्ट्रवाद व अन्तर्राष्ट्रवाद – 1942 के कांग्रेस के अधिवेशन में उन्होंने कहा था, “मैं राष्ट्रवादी हूँ और मुझे राष्ट्रवादी होने पर अभिमान है राष्ट्रीयता सम्बन्धी उनकी धारणा संकुचित नहीं है। उनका कहना था कि मात्रभूमि के प्रति भावुकता से भरे सम्बन्ध को राष्ट्रीयता कहते हैं। उनके शब्दों में ‘हिन्दुस्तान मेरे खून में समाया है और उसमें बहुत कुछ ऐसी बात है, जो मुझे स्वभावतः उकसाती हैं।”
नेहरू राष्ट्रवादी थे किन्तु उन्होंने राष्ट्रवाद का कोई नया सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं किया था। नेहरू का राष्ट्रवाद उग्र राष्ट्रवाद नहीं था। वे उदार राष्ट्रवादी थे क्योंकि उदारवाद में उनका गहरा विश्वास था। उदार राष्ट्रवाद का प्रमुख लक्षण यह है कि अपने राष्ट्र के प्रति भावुक होते हुये भी वह दूसरे राष्ट्रों से घृणा नहीं करता, दूसरे राष्ट्रों पर आधिपत्य करने और उनका शोषण करने की बात वह नहीं सोच पाता। नेहरू का राष्ट्रवाद वास्तव में इसी प्रकार का राष्ट्रवाद है। उनका राष्ट्रवाद स्वतंत्रता का मूल प्रेरणा स्रोत है। उनका राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद से मुक्ति और देश की स्वतंत्रता के लिये संघर्ष की प्रेरणा देता है, जब कभी कोई आपत्ति आती है तब राष्ट्रवाद जन्म लेता है। नेहरू भावनात्मक दृष्टि से भारत की संज्ञा देते थे। नेहरू भारत की आधारभूत एकता में विश्वास रखते थे। वे भारत की विविधता में एकता के दर्शन करते थे।
नेहरू को धार्मिक राष्ट्रवाद से कोई सहानुभूति न थी जिन्ना ने धर्म को लेकर ‘मुस्लिम राष्ट्रीयता के लिये पैरवी की थी और इस आधार पर उन्होंने भारत से अलग एक ‘मुस्लिम राष्ट्रीयता ‘की माँग की थी, तब नेहरू ने कहा था कि ‘यदि राष्ट्रीयता का आधार धर्म है तो भारत में न केवल 2 वरन् तमाम राष्ट्र मौजूद हैं। भारत की राष्ट्रीयता न हिन्दू राष्ट्रीयता है न मुस्लिम, वरन् यह विशुद्ध भारतीय है।” नेहरू का राष्ट्रवाद धर्म-निरपेक्षता पर आधारित है।
नेहरू ने आत्मनिर्णय के सिद्धांत पर अत्यधिक बल दिया। उन्होंने एक सच्चे राष्ट्रवादी के रूप में हर देश की आजादी का समर्थन किया। उन्होंने कहा, “हर गुलाम देश के लिए राष्ट्रवाद की भावना से ओतप्रोत होना सर्वदा स्वाभाविक है। एक पराधीन देश के लिए शान्ति का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि शान्ति तो स्वतंत्रता के बाद ही स्थापित हो सकती है। नेहरू ने ऐसे राष्ट्रवाद को ठुकरा दिया जो अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति में बाधक हो तथा अपने स्वरूप में आक्रामक हो। नेहरू उदार राष्ट्रवाद के समर्थक हैं क्योंकि उनका राष्ट्रवाद दूसरे राष्ट्रवाद से घृणा नहीं करता। वे उग्र राष्ट्रवाद के आलोचक थे। नेहरू धार्मिक या हिन्दू राष्ट्रवाद से मुक्त धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद के समर्थक थे।
उन्होंने तिलक, पाल, अरविन्द घोष द्वारा प्रतिपादित राष्ट्रवाद के दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं किया। नेहरू जीवन भर साम्प्रदायिकता का विरोध व धर्म निरपेक्ष राष्ट्रवाद स्थापित करने के प्रयत्न में डटे रहे और इस प्रकार का राष्ट्रबाद एक उदार, सतर्क और मर्यादित मनोवृत्ति है।
अन्तर्राष्ट्रवाद -नेहरू राष्ट्रवादी होने के साथ-साथ महान अन्तर्राष्ट्रवादी भी थे। नेहरू के अनुसार राष्ट्रवाद और अन्तर्राष्ट्रवाद एक-दूसरे के पूरक है विरोधी नहीं। अन्तर्राष्ट्रीयता के लिए आवश्यक है कि दुनिया के सारे राष्ट्रों को स्वतंत्रता मिले। बिना स्वतंत्र हुए सच्चा राष्ट्रवाद नहीं आ सकता व राष्ट्रवादी होने पर ही अन्तराष्ट्रवादी हुआ जा सकता है, यही नेहरू का विश्वास था उन्हीं के शब्दों में, “विश्व का अन्तर्राष्ट्रीयकरण हो चुका है। उत्पाद अन्तर्राष्ट्रीय है, बाजार अन्तर्राष्ट्रीय है, परिवहन अन्तर्राष्ट्रीय है। कोई राष्ट्र स्वावलंबी नहीं है, सभी एक दूसरे पर निर्भर हैं। नेहरू का अन्तराष्ट्रवाद राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित है, वे लिखते हैं कि “हम भारत के लोग विश्व व्यवस्था में सहर्ष सहयोग देंगे और एक सामूहिक सुरक्षा के लिए एक दूसरे से मिलकर अपनी राष्ट्रीय सम्प्रभुता को छोड़ने के लिये तैयार रहेंगे। किन्तु यह केवल तभी सम्भव होगा जब हम शान्ति व स्वतंत्रता के आधार पर संगठित हो। नेहरू के विचार में बिना राष्ट्रवादी हुए हम अन्तर्राष्ट्रवादी नहीं बन सकते।
यदि भावुक नेहरू विवेक के आधार पर राष्ट्रवादी थे तो उनके मानवतावादी दृष्टिकोण ने उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय बना दिया था। वे शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व के आदर्श में विश्वास रखते थे। वे ऐसे राष्ट्रवाद के विरोधी थे जो अपनी चरम अवस्था में पहुँचकर स्वयं को अन्यों की तुलना मैं सर्वश्रेष्ट मानकर अन्तर्राष्ट्रवाद का विरोधी बन जाता है। नेहरू अपने इसी उदार और व्यापक दृष्टिकोण के कारण समन्वयवादी प्रवृत्ति के माने जाते थे। उन पर टैगौर के ‘समन्वयात्मक विश्ववाद’ व गांधी का ‘विश्व बन्धुत्व की भावना’ दोनों का प्रभाव था और इसी कारण समन्वयवादी नेहरू ने राष्ट्रवाद व अन्तर्राष्ट्रवाद के बीच अद्भुद सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया और इसी कारण UNOके चार्टर का सदा सम्मान देश प्रेम के साथ-साथ किया।
अन्तर्राष्ट्रवाद के क्षेत्र में नेहरू का प्रमुख योगदान गुटनिरपेक्ष व पंचशील के सिद्धांत हैं। विश्व जैसे दो खेमों में बँट चुका था जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद प्रबल रूप से एक दूसरे के विरोधी थे। ये थे USA पूँजीवादी शिविर और USSR का साम्यवादी शिविर। ऐसे में नेहरू का भारतीय विदेश नीति को गुटनिरपेक्ष बनाये रखना बहुत परिश्रम साध्य व दूरदर्शी कार्य था। फलतः दुनिया में इनके विचारधारा वाले ये दोनों देश शान्ति व सहअस्तित्व से नहीं रह पा रहे थे। फलतः दुनिया में इनके समर्थक देशों में युद्ध के बादल कहीं मंडराते थे तो वे वास्तविक युद्ध में बदल जाते थे। ऐसी स्थिति में नेहरू ने गुटनिरपेक्षता का रास्ता दिखाकर विकासशील देशों के सम्मुख अपना उत्तम शान्तिपूर्ण आचरण रखा। नेहरू ने गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाकर अनार्राष्ट्रीय राजनीति में अलग रहते हुए (दोनों गुटों से भी अन्तर्राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया और दोनों गुटों के बीच मध्यस्थ का काम करके भारत के गौरव को और भी बढ़ा दिया।
पंचशाल अपनाकर ही शांति सहअस्तित्व को अपनाया जा सकता है। राष्ट्रों के आपसी व्यवहार को नियंत्रित करने के लिये नेहरू ने 1954 में चीन के पी0एम0 के साथ मिलकर पंचशील के अग्रोकित 5 सिद्धांत को जन्म दिया
- एक दूसरे की प्रादेशिक अखंडता तथा प्रभुसत्ता का सम्मान
- पारस्परिक अनाक्रमण
- एक दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्ताक्षेप न करना
- समानता के आधार पर पारस्परिक लाभ
- शांतिपूर्ण सह अस्तितव
यद्यपि चीन ने इसका उल्लंघन किया किन्तु फिर भी विश्व शांति के क्षेत्र में पंचशील सिद्धांतों का महत्व कम नहीं होता है।
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