राजा राममोहन राय के सामाजिक विचार | Social thoughts of Raja Rammohan Roy in Hindi

राजा राममोहन राय के सामाजिक विचार | Social thoughts of Raja Rammohan Roy in Hindi
राजा राममोहन राय के सामाजिक विचार | Social thoughts of Raja Rammohan Roy in Hindi

राजा राममोहन राय के सामाजिक विचार 

राजा राममोहन राय के सामाजिक विचार- राजाराममोहन राय भारत के सुधार अन्दोलन के अग्रदूत थे। उन्हें आधुनिक भारत का जनक भी कहा जाता है। उन्होंने उस समय में प्रचलित कुरीतियों का विरोध किया और समाज के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण समाज सुधारक आन्दोलनों का संचालन किया जिनका विवरण निम्नवत है-

(1) सती प्रथा का विरोध- राजा राममोहन राय पहले हिन्दू थे जिन्होंने सती प्रथा के विरोध में साहसिक कदम उठाये। उन्होंने इस कुप्रथा के विरुद्ध समाज। एकत्रित किया, उसके बाद अपनी रचनाओं लेखों, पत्र-पत्रिकाओं आदि के माध्यम से इस प्रथा अन्य साथियों को के विरुद्ध जनमत का निर्माण करना आरम्भ किया। वे शव यात्राओं में शामिल होते, श्मशान घाटों में जाते और लोगों से ऐसा जघन्य कार्य न करने का अनुरोध करते थे। जब बलात् किसी विधवा को उसकी इच्छा के विरुद्ध चिता में झोंक दिया जाता और राजाजी इसका विरोध करने लगते तो लोग उन्हें मुसलमान, नास्तिक आदि कहकर अपमानित करते और उन्हें वहाँ से हटा देते थे। इस पर भी वे अपने मिशन में हतोत्साहित नहीं हुए।

राजा राममोहन राय ने हिन्दू धर्मशास्त्रों का अध्ययन करके उनके आधार पर यह सिद्ध करने का पूरा प्रयत्न किया कि सती प्रथा न तो शास्त्रसम्मत है और न इसका कोई कानूनी, नैतिक या मानवीय आधार है। उन्होंने तर्क दिया कि “यदि चिता ज्वालाओं में जल मरना इतना पवित्र कार्य है तो कोई पुरुष अपने माता-पिता या पत्नी के मरने पर उनकी चिता में स्वयं क्यों नहीं जल मरता ? कितने पुरुष ऐसे हैं जो अपनी पत्नी के मर जाने पर उसके वियोग में अपने पतित्व न की रक्षा एक सती होने वाली नारी की भाँति करते हैं।” राजा राममोहन राय के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप लॉडविलियम बेंटिक के समय में 4 दिसम्बर, 1829 ई. में सरकार ने कानून बनाकर सती प्रथा पर रोक लगा दी।

(2) बहु-विवाह का विरोध- राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के साथ बहु विवाह का विरोध किया। उस समय बंगाल के कुलीन ब्राह्मणों में हिन्दू समाज के अन्तर्गत बहु-पत्नी विवाह की प्रथा प्रचलित थी। यह भी एक भारी सामाजिक अन्याय की द्योतक प्रथा थी। “कुलीन ब्राह्मण जितनी चाहता था उतनी शादियाँ कर लेता था। ऐसी स्थिति में कुलीन ब्राह्मणों एक पत्नी के जीवित रहते दूसरा विवाह करने की अनुमाति विशेष तथा अत्यावश्यक परिस्थितियों में ही मिलनी चाहिए। उन्होंने बहुत पत्नी विवाह के विरुद्ध आवाज उठायी और सरकार से माँग की कि किसी व्यक्ति को एक पत्नी के जीवित रहते, बिना मजिस्ट्रेट से अनुमाति प्राप्त किये शादी का अधिकार नहीं रहना चाहिए। मजिस्ट्रेट को ऐसी अनुमति प्रदान करने से पूर्व ऐसे आवेदन के विभिन्न पहलुओं का पूरा ज्ञान करके अत्यावश्यक परिस्थिति में ऐसी अनुमति प्रदान करनी चाहिए। आज इस सामाजिक कुप्रथा पर कानूनी प्रतिबन्ध लगा दिया गया है।

(3) जाति-प्रथा का विरोध- हिन्दू समाज के पतन का एक मुख्य कारण राजाजी ने यह बताया कि वह वर्ण तथा जातियों के आधार पर अनगिनत टुकड़ों में बँट गया था। इनके मध्य ऊँच-नीच की अप्राकृतिक प्रथा चल चुकी थी। इस विभाजन को उन्होंने अप्राकृतिक, अविवेकपूर्ण तथा सामाजिक एकता के मार्ग में भारी हानिकारक बताया। गुण तथा कार्यों के आधार पर व्यक्ति जो भी कार्य करे उसके आधर पर उसे पृथ्क जाति का मानना या ऊँच-नीच का भेदभाव अनुचित है। पुनः वंशगत आधार पर ऊँच-नीच का भेदभाव हिन्दू समाज को विनाश की ओर ले जायेगा। अतः उन्होंने जाति-प्रथा का विरोध किया।

(4) बाल-विवाह का विरोध- उस समय बाल विवाह के दो रूप थे। एक तो यह कि लड़के तथा लड़कियों दोनों का विवाह इतनी छोटी अवस्था में कर दिया जाता था कि जब दोनों में से किसी को भी वैवाहिक जीवन का बोध नहीं होता था। राजाजी ने इसे सामाजिक अनैतिकता मानने के साथ-साथ अस्वस्थ परिपाटी कहकर इसे कानून द्वारा बन्द कराने का प्रचार किया। इससे भी अधिक बुरी प्रथा अनमेल विवाह की थी, जिसके अन्तर्गत एक अर्द्ध-वृद्ध पुरुष का विवाह 10 या 11 वर्ष की कन्या के साथ कर दिया जाता था। सती प्रथा के रहते तो यह घोर सामाजिक अन्याय ही था। राजाजी ने इस प्रथा का और अधिक विरोध किया। कालान्तर में शारदा कानून के द्वारा बाल-विवाह की प्रथा को बन्द कर दिया गया।

(5) अन्तर्जातीय विवाह का समर्थन– यद्यपि प्रत्यक्षतः राजाजी ने अन्तर्जातीय विवाहों के समर्थन में प्रचार का कदम नहीं उठाया तथापि जाति प्रथा का विरोध, स्त्री-शिक्षा, विधवा-पुनर्विवाह, स्त्रियों के सम्पत्ति के अधिकारों का समर्थन आदि ऐसी बातें थीं, जिन्होंने भविष्य के समाज सुधारकों के लिए अन्तर्जातीय विवाह का समर्थन, प्रचार तथा प्रसार करने के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर दी।

(6) विधवा-विवाह- सती-प्रथा के प्रचलन के पीछे कोई धार्मिक तर्क नहीं थे, प्रत्युत् उस समय बंगाल समाज के अन्दर महिलाओं को जिस उपेक्षापूर्ण ढंग से रखा जाता था. उसका सबसे महान् संकट विधवाओं को उठाना पड़ता था। राजाजी ने इस बात को अनुचित बताया कि पुरुष अपनी वासनाओं की तृप्ति के लिए जितने विवाह करना चाहे कर सकता था, परन्तु महिला पुनर्विवाह नहीं कर सकती थी। उन्होंने तर्क दिया कि प्राचीन काल में समाज के अन्दर विधवाओं की सुरक्षा तथा जीवन यापन की व्यवस्था अच्छी थी। किन्तु उनके युग में विधवा को या तो सती होना पड़ता था या जीवित रहने पर दुःखभरी तथा दासता की स्थिति का जीवन व्यतीत करना पड़ता था अथवा वेश्यावृत्ति अपनानी पड़ती थी। अतः उन्होंने इस सामाजिक समस्या से निपटने के लिए विधवा-पुनर्विवाह का समर्थन किया ताकि विधवा हो जाने पर स्त्रियाँ पुन: सम्मानपूर्ण जीवन व्यतीत करने की क्षमता प्राप्त कर सकें। इस सम्बन्ध में भी उनका प्रस्ताव साकार करने के निमित्त ठोस कदम तो नहीं उठाये जा सकें, परन्तु उनके विचार भविष्य में समाज-सुधारकों के लिए प्रेरणा के स्रोत सिद्ध हुए। बाद में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, केशवचन्द्र सेन, महादेव गोविन्द रानाडे आदि ने इस दिशा में प्रचार करने कि लिए उल्लेखनीय कार्य किया।

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