राजा राममोहन राय द्वारा ब्रह्म समाज की स्थापना क्यों की गई?
राजा राममोहन राय ने एक महान दृष्टा के रूप में समाज को आगे बढ़ाने के लिए अगस्त, सन् 1828 ई. को कलकत्ता में ब्रह्म समाज की स्थापना की। इस संस्था में मूर्ति पूजा का कोई स्थान नहीं था। इस संस्था की स्थापना के सम्बन्ध में दो प्रकार के विवरण मिलते हैं। एक तो जब यूनीटिरेनियम सोसाइटी विफल हुई, उस समय राजा राममोहन राय के सहयोगी एडम ने ब्रह्म की स्थापना का सुझाव दिया। दूसरा विवरण उस समय का है जब राजाजी अपने शिष्यों-तारानाथ चक्रवर्ती और चन्द्रशेखर देव के साथ एडम के यहाँ से लौट रहे थे, इन लोगों ने प्रार्थना स्थान स्थापित करने का सुझाव दिया।
राजा राममोहन राय ने इस संदर्भ का समन्वयात्मक अध्ययन के तुलनात्मक धर्म का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। मुसलमान मस्जिद में बैठकर और खड़ा होकर अपने हाथों और पैरों को तोड़ता-मरोड़ता है तो हिन्दू अपने मन्दिर में मूर्ति के समक्ष सिर फोड़ता है, समाधि लगाता है और पानी में खड़ा खड़ा अपने को यातना देता है। ये पूजा के तरीके अलग-अलग हैं, पर ये ऐतिहासिक परम्पराएँ हैं जिसके कारण ये एक-दूसरे से मिल नहीं सकते किन्तु यह तो मानना ही पड़ता है कि धर्म एक है, तरीके अलग-अलग हैं।
इसलिए ब्रह्म समाज की स्थापना भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, नैतिक और राजनीतिक प्राचीन सामन्तवादी प्रथा से मुक्ति दिलाने के लिए हुई है जिसमें मनुष्य को स्वतन्त्रता प्रदान की गई है कि वह शास्त्र और पुजारी के सिद्धान्तों से ऊपर उठकर आधुनिक वैज्ञानिक साधनों की ओर बढ़े और अपने ज्ञान के द्वारा देश का आर्थिक, राजनैतिक और बौद्धिक विकास कर सके। ब्रह्म समाज किसी एक धर्म में विश्वास नहीं करता बल्कि यह एक मानव धर्म है जिसमें समस्त मानव धर्मों के सिद्धान्त हैं। इस समाज के बारे में मैक्समूलर ने लिखा है, “यदि भारत में कभी भी कोई नया धर्म होगा तो मुझे विश्वास है कि वह अपने जीवन संचार के लिए राजा राममोहन राय और उनके शिष्य देवेन्द्रनाथ टैगोर और केशवचन्द्र सेन के विशाल हृदय का ऋणी होगा।”
ब्रह्म समाज के सम्बन्ध में राजा राममोहन राय ने इस समाज के घोषणा-पत्र में लिखा है, “कोई खुदी हुई मूर्ति इस समाज में नहीं लाई जायेगी, केवल ऐसे ही प्रवचन, व्याख्यान, प्रार्थना या भजन प्रस्तुत किये जायेंगे जो संसार के रचयिता और रक्षक को ध्यान में प्रवृत्त करते हैं और दानशीलता, नैतिकता, पवित्रता, शील के लिए सभी धर्मों और मतों के मनुष्यों के बीच एकता के बन्धन को सुदृढ़ करने के लिए प्रेरणा देते हैं। किसी भी ऐसे जीवित या निर्जीव पदार्थ का जिसको पूजा होती हो, अपमान नहीं किया जायेगा न उसके विषय में तिरस्कार या घृणापूर्वक कोई बात कही जायेगी।” इस प्रकार ब्रह्म समाज में मानवतावादी दृष्टिकोण को अपनाया गया है।
राजाजी के समय में ब्रह्म समाज का काफी विकास हुआ। आपके पश्चात् आन्दोलने का नेतृत्व ठाकुर देवेन्द्रनाथ ने किया।
1857 में केशवचन्द्र सेन ने इसका नेतृत्व सँभाला। इस प्रकार श्री राममोहन राय ने जो ब्रह्म समाज की नींव रखी थी उसे ठाकुर देवेन्द्रनाथ ने सुदृढ़ किया और केशवचन्द्र सेन से आगे बढ़ाया।
ठाकुर देवेन्द्रनाथ और केशवचन्द्र सेन में मतभेद हो जाने के कारण ब्रह्म समाज की दो शाखाएं (आदि, भारतीय) हो गयीं। आगे चलकर केशवचन्द्र सेन का कुछ उत्साही युवकों से मतभेद हुआ जिसके फलस्वरूप ब्रह्म समाज में पुनः विभाजन हुआ। 1878 में शिवनाथ शास्त्री और आनन्दमोहन बोस ने साधारण ब्रह्म समाज की स्थापना की। इन शाखाओं के सन्दर्भ में मैक्समूलर ने लिखा है-“मेरे विचार में ये तीनों समाज आदि, भारतीय और साधारण, राजा राममोहन द्वारा लगाये गये वृक्ष की तीन शाखाएँ हैं जो भारत के लिए नहीं वरन् सारे संसार के लिए नया धर्म तलाश करने के स्वप्न को साकार करने की ओर अग्रसर रहेंगी।
ब्रह्म समाज के उद्देश्य
- सामाजिक कुरीतियों को दूर करना।
- मूर्ति पूजा का विरोध करना ।
- ब्रह्म समाज का उद्देश्य हिन्दू धर्म व समाज को प्रगतिशील बनाना, खोये हुए गौरव को पुनः जीवित करना, प्रगतिवादी भावना एवं विचारों को उत्पन्न करना है।
- जाति भेद को समाप्त करना।
- सती प्रथा का अन्त करना।
- छूआछूत की समाप्त।
- नारी में जागरूकता उत्पन्न करना।
- बाल-विवाह, बहुविवाह का अन्त करना।
- पुरोहितों के कर्म-काण्डों व भ्रष्टाचार का खण्डन करना।
- विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहित करना ।
- अन्धविश्वास और रूढ़िवादिता की समाप्ति।
- अंग्रजी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना।
ब्रह्म समाज के नियम एवं सिद्धान्त
- यह अवतारवाद में विश्वास नहीं करता है।
- परमात्मा के ज्ञान के साधन मानसिक ज्योति एवं विशाल प्रकृति हैं।
- ईश्वर की पूजा का अधिकार सभी को है। साम्प्रदायिकता की भावना नहीं होनी चाहिए।
- ईश्वर एक है जो सभी सद्गुणों का केन्द्र है। उसी की पूजा होनी चाहिए ।
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