लोकतांत्रिक समाजवाद की परिभाषा और भारतीय समाज पर इसके प्रभाव

लोकतांत्रिक समाजवाद की परिभाषा और भारतीय समाज पर इसके प्रभाव
लोकतांत्रिक समाजवाद की परिभाषा और भारतीय समाज पर इसके प्रभाव

लोकतांत्रिक समाजवाद की परिभाषा लिखिये और भारतीय समाज पर इसके प्रभाव का मूल्यांकन कीजिए।

लोकतांत्रिक समाजवाद की परिभाषा

लोकतांत्रिक समाजवाद- राजनीतिक क्षेत्र में लोकतंत्र और आर्थिक क्षेत्र में समाजवाद के बीच समन्वय ही लोकतान्त्रिक समाजवाद है। सेलर्स महोदय के अनुसार “लोकतांत्रिक समाजवाद एक आंदोलन है, जिसका लक्ष्य समाज में एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था स्थापित करना है, जो किसी एक समय पर अधिक से अधिक न्याय तथा स्वतंत्रता प्राप्त कर सके।” मैक्सी महोदय के अनुसार “बीसवीं शताब्दी में लोकतंत्र से अभिप्राय एक राजनीतिक नियम शासन की पद्धति और समाज की संरचना से ही नहीं है, बल्कि यह जीवन के उस मार्ग की खोज है, जिसमें मनुष्यों की स्वतन्त्र तथा ऐच्छिक बुद्धि के आधार पर उनमें अनुरूपता एवं एकीकरण लाया जा सके।”

लोकतन्त्र लोकतांत्रिक समाजवाद और नेहरू – नेहरू के अनुसार सोकतन्त्र सर्वोत्तम शासन व्यवस्था है। लोकतंत्र एक गतिशील धारणा है। नेहरू ने संविधानवाद और नागरिक अधिकारों पर विशेष बल दिया। वे सत्ता के विकेन्द्रीकरण में विश्वास रखते थे इसलिए उन्होंने 21 अक्टूबर 1959 को लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण की योजना अपनाई थी। नेहरू को संसदीय व्यवस्था की श्रेष्टता में भी पूरा विश्वास था। नेहरू ने लोकतंत्रीय आचरण का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत किया। उनका करिश्माई नेतृत्व एक मिशाल है।

राजनीतिक क्षेत्र में लोकतंत्र और आर्थिक क्षेत्र में समाजवाद के बीच में समन्वय ही लोकतांत्रिक समाजवाद है। इस प्रकार पं. नेहरू ने समाजवाद को अपने ही ढंग से लिया है। उनका कहना था कि समाजवाद व्यक्ति के महत्व को समाप्त नहीं करता है बल्कि उसकी महत्ता को बढ़ा देता है। नेहरूजी ने भारत में लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना करने का निश्चयः किया। आगे नागपुर अधिवेशन में उन्होंने समाजवादी समाज की स्थापना करने का निश्चय किया। आगे नागपुर अधिवेशन में उन्होंने सहकारी खेती का विचार रखा। उनके विचार सदा बदलते रहे पर इतना वे हमेशा कहते रहे कि “समाजवादी समाज में उत्पादन और वितरण के साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं होना चाहिए।” यही समाजवाद का मुख्य आधार है। एक बार समाजवाद पर विचार प्रकट करते हुए उन्होंने कहा था कि “मैं उग्र प्रकार का समाजवादी नहीं, मैं राज्य को सर्वशक्तिमान सम्पन्न, जैसा कि समाजवाद चाहता है, देखना पसन्द नहीं करता हूँ। ऐसा राज्य जो सभी कार्यकलापों का संचालन करता है, मेरे लिए आदर्श नहीं। मैं तो केन्द्रीकरण का नहीं, विकेन्द्रीकरण का पक्षपाती हूँ।” समाजवाद को अपनाने का कारण बताते हुए नेहरू ने कहा था कि “हमने समाजवाद का उद्देश्य इसलिए नहीं अपनाया है कि यह हमें ठीक तथा लाभकारी लगता है, बल्कि इसलिए भी स्वीकार किया है कि हमारी आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए हमारे सामने अन्य कोई मार्ग न था। बहुधा कहा जाता है कि शान्तिपूर्ण एवं संवैधानिक उपायों से तीव्र गति से उन्नति नहीं होती, यह बात मैं नहीं मानता हूँ। यदि गणतंत्रीय उपाय के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय अपनाया गया तो वह विनाशकारी होगा तथा तुरन्त प्रगति की सम्भवनाएँ मिट जायेंगी। नेहरू समाजवाद के वैधानिक पक्ष के समर्थक थे। वे समाजवाद की इतनी प्रशंसा करते थे कि विश्व का कल्याण समाजवाद से ही सम्भव है। उनके शब्दों में, “संसार की तथा भारत की समस्याओं का समाधान केवल समाजवाद द्वारा ही सम्भव दिखाई पड़ता है। जब मैं शब्द का प्रयोग करता हूँ तब केवल मानवीय नाते से ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक, आर्थिक दृष्टि से भी करता हूँ, किन्तु समाजवाद आर्थिक सिद्धांत में कुछ अधिक महत्वपूर्ण है, ऐसा नहीं यह तो एक जीवन दर्शन है और इसलिए यह मुझे जँचता भी है। मेरी दृष्टि में निर्धनता, चारों ओर फैली बेरोजगारी, भारतीय जनता का अधोपतन, तथा दासता को समाप्त करने का मार्ग समाजवाद को छोड़कर अन्य किसी प्रकार से सम्भव नहीं दिखता।”

पं. नेहरू ने भुवनेश्वर अधिवेशन में प्रजातांत्रिक समाज द्वारा समाजवादी राज्य के प्रति पूर्ण आस्था प्रकट की। वे समाजवाद के भावनात्मक नारे से सन्तुष्ट न हुए बल्कि उसे व्यवहार में लाने का भी उन्होंने प्रबन्ध किया। वे पाश्चात्य ढंग का समाजवाद नहीं लाना चाहते थे बल्कि उसे भारतीय परिस्थितियों के अनुसार ढालना चाहते थे। वे मार्क्स का अन्धानुकरण नहीं करना चाहते थे। उनका कहना था कि मार्क्स 19वीं शताब्दी के विचारक थे, 20वीं शताब्दी के नहीं। वे “प्रत्येक “उद्योग का राष्ट्रीयकरण” के नारे को व्यर्थ समझते थे।

लोकतांत्रिक समाजवाद का भारत पर विशेष प्रभाव पड़ा जैसे-

(1) देश प्रेम की भावना- लोकतांत्रिक समाजवाद द्वारा समाज एवं व्यक्तियों में देश प्रेम की भावना का विकास किया जाता है क्योंकि लोकतंत्रात्मक समाजवाद में जनता ही सर्वेसर्वा होती है। अतः वह राष्ट्रप्रेम की भावना से स्वयं ओत-प्रोत रहती है।

(2) व्यक्ति का महत्व- लोकतांत्रिक समाजवाद में व्यक्ति को अधिक महत्व दिया. जाता है। बाइस के अनुसार, “राजनीतिक मताधिकार प्राप्त होने के कारण व्यक्ति के व्यक्तित्व को समुचित स्थान प्राप्त होता है तथा कर्तव्य की भावना के जाग्रत होने के कारण व्यक्ति का स्तर उच्च हो जाता है। “

(3) सामाजिक एकता की अनुभूति- लोकतांत्रिक समाजवाद भारत में सामाजिक एकता का सर्वोत्तम साधन बन गया। यह एक ऐसी व्यवस्था थी जिसमें व्यक्ति तथा समाज का सावयवी सम्बन्ध रहता है। व्यक्ति समाज का उसी तरह अभिन्न अंग है, जिस प्रकार अवयव । शरीर के इस सावयवी एकता का अनुभव व्यक्ति लोकतंत्र में करते है, क्योंकि लोकतंत्र सार्वजनिक हित पर अधिक जोर देता है, न कि व्यक्तिगत हित पर।

(4) सार्वजनिक कल्याण- लोकतांत्रिक समाजवाद में सार्वजनिक कल्याण की भावना निहित होती है, क्योंकि लोकतन्त्रात्मक शासन जनता के हित के लिए होता है। इसमें व्यक्ति विशेष के लिए कोई स्थान नहीं होता है।

(5) परिवर्तनशील शासन पद्धति- लोकतंत्र एक ऐसा अनोखा प्रयोग है, जिसमें शासन पद्धति को उस समय तक बदलते रहने की छूट है, जबकि वह लोकमत के अनुकूल न हो जाय।

इस प्रकार स्पष्ट है कि लोकतान्त्रिक समाजवाद में जनता के हित को सर्वोपरि रखा जाता है। इसमें व्यक्तिगत स्वार्थी या हितों के लिए कोई जगह नहीं होती।

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