सम्पत्ति का प्रन्यासी सिद्धान्त | वर्तमान में संरक्षकता सिद्धान्त की उपादेयता

सम्पत्ति का प्रन्यासी सिद्धान्त | वर्तमान में संरक्षकता सिद्धान्त की उपादेयता
सम्पत्ति का प्रन्यासी सिद्धान्त | वर्तमान में संरक्षकता सिद्धान्त की उपादेयता

महात्मा गाँधी के संरक्षकता सिद्धान्त’ का वर्णन कीजिए। वर्तमान समय में इसका क्या महत्व है?

सम्पत्ति का प्रन्यासी सिद्धान्त

 गाँधीजी ने सम्पत्ति के स्वामित्व और प्रयोग के सम्बन्ध में भी अपनी अवधारणा के अनुसार, एक नये सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। वे पश्चिम में विकसित इस दृष्टि से समाजवादी साम्यवादी व्यवस्था के अनुसार, सम्पत्ति के सम्बन्ध में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने सम्पत्ति के मुख्य रूप से वैयक्तिक सम्पत्ति के राष्ट्रीयकरण के सिद्धान्त में उनके स्थान पर प्रन्यास सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया और कहा कि, वैयक्तिक सम्पत्ति हर एक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है तथा उसकी आवश्यकतानुसार सम्पत्ति रखना हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, लेकिन अगर एक व्यक्ति के पास आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति है तो क्या किया जाये ?

इस प्रश्न का उत्तर देते हुए गाँधीजी कहते हैं कि, किसी व्यक्ति के पास अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति से अधिक सम्पत्ति है, उसे स्वयं को स्वामी नहीं ‘प्रन्यासी’ समझना चाहिए अर्थात् उसे समाज की सम्पत्ति या धरोहर समझना चाहिए तथा एक न्यासी की तरह उसका प्रयोग अपने हित के लिए नहीं वरन् सामाजिक हित सिद्धि हेतु करना चाहिए। यह सिद्धान्त मुख्य रूप से उन्होंने पूँजीपतियों को ध्यान में रखकर प्रतिपादित किया था।

उनके अनुसार वैयक्तिक सम्पत्ति का कल्याणकारी पक्ष के साथ लोक-कल्याणकारी पक्ष भी है। उन्होंने आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति के इसी लोक कल्याणकारी पक्ष पर जोर दिया तथा उसका प्रयोग लोक-कल्याण के लिए किये जाने की आवश्यकता का प्रतिपादन किया। सम्पत्ति के सम्बन्ध में उनका यह दृष्टिकोण नैतिक अवधारणा के अनुकूल था। वे उसके अनुसार, व्यैक्तिक सम्पत्ति के स्वामित्व की इस तरह से व्यवस्था करना चाहते थे जिससे सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। वे उसके शोषणकारी रूप को समाप्त करना चाहते थे। ऐसा तभी सम्भव हो सकता था जबकि वैयक्तिक सम्पत्ति का अधिकाधिक प्रयोग सामाजिक हित साधन हेतु हो। वे व्यक्ति को इस हेतु स्वेच्छा से प्रेरित करना चाहते थे। जोर जबरदस्ती से वे इस दृष्टि से काम लेना उचित नहीं समझते थे। जोर जबरदस्ती से कायम की गयी व्यवस्था उनके अनुसार, तभी तक कायम रह सकती है जब तक उसके पीछे शक्ति है, लेकिन स्वेच्छा से हृदय परिवर्तन के माध्यम से कायम की गयी व्यवस्था स्थायी रूप से कायम रहेगी, चाहे उसके पीछे शक्ति अर्थात् राज्यशक्ति का समर्थन हो या न हो। अतः सम्पत्ति सम्बन्धी स्वामित्व का उनके द्वारा प्रतिपादित ‘प्रन्यासी सिद्धान्त’ एक स्वेच्छा पर आधारित सिद्धान्त है, बाहर से लादा हुआ सिद्धान्त नहीं है। उसके माध्यम से व्यक्ति नैतिक दृष्टि से स्वच्छ होकर स्वतः अपनी सम्पत्ति का समाज हित की सिद्धि हेतु प्रयोग करता है, कोई उसे इस दृष्टि से बाध्य नहीं करता है।

वर्तमान में संरक्षकता सिद्धान्त की उपादेयता

 गाँधीजी द्वारा आर्थिक समानता स्थापित करने के लिए जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया वह वर्तमान पूँजीवादी वर्ग को सुधारने का एक अवसर प्रदान करती है। परन्तु आलोचक उसे नितान्त आवश्यक बतलाकर उसकी आलोचना करते हैं। गाँधीजी सोचते थे कि पूँजीपतियों के हृदय परिवर्तन से पूँजीवाद को समाप्त करने व आर्थिक समानता स्थापित करने का कार्य किया जा सकता है, लेकिन वर्तमान समय में हृदय परिवर्तन आसानी से सम्भव नहीं है। यह सिद्धान्त आर्थिक जीवन की जटिलताओं को न समझते हुए मानव की नैतिक शक्तियों में जरूरत से ज्यादा विश्वास करता है। वर्तमान समय में यह कार्य सिर्फ उत्पादन के प्रमुख साधनों के राष्ट्रीयकरण के आधार पर ही सम्भव हो सकता है। वास्तव में उनका (ट्रस्टीशिप) का सिद्धान्त आर्थिक हितों की रक्षा का साधन बनने की बजाय पूँजीपतियों का ‘रक्षा कवच’ ही बनकर रह गया है।

यद्यपि आर्थिक क्षेत्र के सम्बन्ध में गाँधीजी की आर्थिक विचारधारा अव्यवहारिक नहीं है । उनकी नैतिक ईमानदारी पर सन्देह करना उनके साथ अन्याय करना है। गाँधीजी को अहिंसात्मक साधनों के आधार पर मानव हृदय परिवर्तन क्षमता में अदभूत विश्वास था और अपने इससे आध्यात्मिक विश्वास की स्थिति में सम्पत्ति के राष्ट्रीयकरण एवं श्रमिकों द्वारा सामूहिक रूप उद्योगों के प्रबन्ध का सुझाव दिया।

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