आहारीय चिकित्सा क्या है?
आहारीय चिकित्सा – रोगविमुक्त, स्वास्थ्यलाभ एवं कुछ रोगों को बढ़ने से रोकने के निमित्त सामान्य आहार को रोगी की अवस्था एवं रोग की परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित कर शीघ्र रोग-विमुक्त के लिए, भोजन को एक कारक के रूप में प्रयोग करने की प्रक्रिया आहारीय चिकित्सा कहलाती है।
रुग्णावस्था में उपापचय की क्रिया में परिवर्तन आ जाता है, उदाहरणार्थ, डायबिटीज में अतिरिक्त तरल और नमक को निष्कासित करने की क्षमता में कमी आ जाती है। बुखार आदि में प्रोटीन की अधिक मात्रा में अपचय होने लगता है तथा अधिक मात्रा में ऊर्जा का भी उपापचय होने लगता है। इन सभी हालातों में इस बात का ध्यान रखकर सामान्य आहार में कुछ न कुछ परिवर्तन लाना आवश्यक हो जाता है। चिकित्सा में आहार के इस महत्व को सबसे पहले विश्व प्रसिद्ध परिचारिका फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने सन् 1854 ई. में क्रीमियाई युद्ध के दौरान आहत सैनिकों की सेवा में उपयुक्त आहार का सदुपयोग कर दुनिया को चिकित्सा में आहार के महत्व के बारे जानकारी प्रदान की। उन्होंने यह प्रमाणित कर दिया कि औषधि-चिकित्सा एवं रोगी की परिचर्या के साथ ही स्वास्थ्यलाभ कराने में आहार का विशेष स्थान होता है जिसे ध्यान रखते हुए डायटीशियन डॉक्टर तथा परिचारिका तीनों का विशेष योगदान होता है। इसमें भी परिचारिका की भूमिका अति महत्वपूर्ण होती है।
आहारीय चिकित्सा के उददेश्य
आहारीय चिकित्सा का उद्ददेश्य न केवल अस्वस्थ व्यक्तियों के पोषक स्तर को बनाए रखना है बल्कि रुग्णावस्था की तीव्रता को कम करने तथा सामान्य स्वास्थ्य स्तर को बनाए रखने के लिए भी भोजन का प्रयोग में लाना है। रुग्णावस्था में भोजन को पचाने, अवशोषित करने तथा उपापचय की प्रक्रियाओं में कुछ दोष आ जाते हैं जिससे ऊतकों को आवश्यक पोषण नहीं मिल पाता है। इन्हीं सबको दृष्टिगत कर रुग्णावस्था के आहार आयोजित किए जाते हैं। इसके मूल उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
- रोगी के शारीरिक आवश्यकतानुसार उसे पौष्टिक तत्व प्रदान करना।
- आवश्यकतानुसार शरीर भार कम या अधिक करने के लिए कैलोरी पर नियन्त्रण करना।
- पाचन तन्त्र के कष्टों को देखते हुए सरल, सौम्य और सुपाच्य आहार प्रदान करना ।
- रुग्णावस्था में भी उच्च पोषक स्तर बनाए रखना तथा जिन पोषक तत्वों की कमी हो जाती है उनकी निरन्तर आपूर्ति करना।
- कुपोषण की स्थिति में पोषकीय क्षतिपूर्ति करना।
- शरीर को पर्याप्त विश्राम प्रदान करना, विशेषकर प्रभावित अंगों को जैसे- अतिसार की स्थिति में रेशेदार आहार न देकर पूर्ण तरल आहार देना, पीलिया में वसा युक्त आहार न देकर यकृत को विश्राम प्रदान करना।
- शरीर के चयापचय क्षमतानुसार भोजन की मात्रा एवं प्रकार निर्धारित करना एवं दोनों में सामंजस्य स्थापित करना ।
- सृजन की चिकित्सा करना, इसमें नमक (सोडियम) को नियन्त्रित किया जाता है।
आहारीय चिकित्सा के सिद्धान्त
चिकित्सीय भोजन तैयार करने के संदर्भ में निम्नांकित सिद्धान्तों के विशेषज्ञों ने अनुशंसा की है-
(1) रोगी की आर्थिक स्थिति की जानकारी अवश्य ही कर लेनी चाहिए। कुछ मह खाद्य कम अवधि के रोग में बताए जा सकते हैं, परन्तु लम्बी अवधि के रोगों में जो खाद्य अनुशंसित किए जाएँ, वे रोगी की पहुँच में अवश्य ही होनी चाहिए।
(2) रोगी शुद्ध शाकाहारी है या मांसाहारी, अण्डा लेता है या नहीं इन बातों की जानकारी आहार-आयोजन के लिए आवश्यक है।
(3) रोगी का आहार सम्बन्धी इतिहास जानना जरूरी है कि वह किन खाद्यों की बर्दाश्त कर सकता है। किन्हीं को दूध से डायरिया हो जाता है तो किन्हीं को उसी से कब्ज ऐसी खाने की चीजों का नियन्त्रण आवश्यक है।
(4) जिन भोज्य पदार्थों से रोगी को एलर्जी हो, उन्हें पूरी तरह से हटा देना चाहिए।
(5) रोगी का व्यवसाय और खाने का समय भी जान लेना आवश्यक है।
(6) रोगी के स्वास्थ्य की अवस्था को देखते हुए कैलोरी, वसा, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन, लवण तथा तरलों सम्बन्धी आवश्यकता की जानकारी आवश्यक है।
(7) रोगी के लिए आहार आयोजन करते समय रोग की अवधि की जानकारी अवश्य कर लेना चाहिए। यदि बहुत लम्बे समय तक चलने वाली बीमारी है तो आहार नितान्त अनम्य अर्थात् बहुत अधिक धाधाया नहीं रहना चाहिए।
(8) रोगी के लिए आहार आयोजन करते समय यह बात महत्व की है कि रोग निवारण के लिए या उसे बढ़ने से रोकने के लिए किस प्रकार का परिवर्तन जरूरी है। किन भोज्य पदार्थों को इसके भोजन से हटाना है और किन्हें बढ़ाना है।
(9) जब भोजन के आयोजन से सम्बन्धित व्यवस्था कड़ी और अनम्य है तथा निर्धारित भोजन में, अपने मन से कुछ परिवर्तन नहीं करना हो तो कुछ खाने की चीजों के न मिलने के कारण शरीर में विटामिनों और लवणों की अतिरिक्त आपूर्ति आवश्यक है। ऐसी हालत तब भी हो सकती है जब रोगी की भूख मर जाती है या शरीर में अवशोषण की क्रिया में कमी आ जाए। इस अवस्था की पहचान और निदान दोनों डॉक्टर के आदेशानुसार करना उचित है।
(10) रोगी का आहार आयोजन जिस व्यक्ति के जिम्मे हो उसे रोगी के आहार सम्बन्धी इतिहास की जानकारी होनी चाहिए। इसके अन्तर्गत रोगी की आहार विषयक आदतें, पसन्द, नापसन्द, समय, तरीके, उसकी निजी समस्याओं की जानकारी आती है। इसके अनुसार काम करने में आर्थिक समस्या या उसे पसन्द आने वाले विशेष भोज्य पदार्थ बाजार में उपलब्ध भी हैं या नहीं, का भी ध्यान रखना आवश्यक है।
(11) रोगी की मनोवैज्ञानिक स्थिति की जानकारी भी होनी चाहिए। उसके साथ व्यवहार, उसके संवेगात्मक आर्थिक और सामाजिक स्तर के अनुरूप होना चाहिए।
(12) रोगी के आहार आयोजन करने वाले व्यक्ति को अच्छी तरह से बनाया और पकाया हुआ, आकर्षक ढंग से परोसा हुआ, रोगी के सम्मुख लाना चाहिए। गर्म खायी जाने वाली वस्तुएँ, जैसे- चाय, कॉफी, गर्म अवस्था में और ठण्डी अवस्था में खायी जाने वाली वस्तुएँ, जैसे कस्टर्ड, पुडिंग, आइसक्रीम आदि शीतल अवस्था में ही रोगी को देना चाहिए। रोगी की पसन्द को ध्यान में रखकर आकर्षक ढंग से परोसा और सजाया तथा शान्त और स्नेहपूर्ण वातावरण में परोसा जाना चाहिए।
(13) रोगी को भोजन देने की कई विधियाँ हैं। ये रोगी की शारीरिक स्थिति के अनुरूप डॉक्टर द्वारा निर्धारित की जाती हैं। सामान्य स्थिति में तो मुँह के द्वारा ही भोजन दिया जाता है। विशेष स्थिति में नलिका या सिराओं द्वारा भी भोजन दिया जाता है। मुँह से सामान्य रूप से तैयार किया खाना देने में भी किन्हीं हालातों में परिवर्तन लाना जरूरी हो जाता है, जैसे-उसे और अधिक नर्म और तरल बनाया जाय या उसका ऊर्जा मूल्य बढ़ाया जाय या फिर किसी विशेष पोषक तत्व की मात्रा को बढ़ाया जाय। रेशेदार और मिर्च मसालों से रहित भोजन तैयार किया जाय। ये सब काम जरूरत पड़ने पर डॉक्टर के निर्देश पर करने चाहिए।
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