गाँधीजी के अहिंसा सम्बन्धी विचार | Gandhi ji ke Ahinsa sambandhi Vichar

गाँधीजी के अहिंसा सम्बन्धी विचार | Gandhi ji ke Ahinsa sambandhi Vichar
गाँधीजी के अहिंसा सम्बन्धी विचार | Gandhi ji ke Ahinsa sambandhi Vichar

गाँधीजी के अहिंसा सम्बन्धी विचार 

गांधीजी और अहिंसा-

गाँधीजी ने अहिंसा को सत्य-प्राप्ति का एक अनिवार्य साधन माना है अहिंसा की प्रेरणा उन्हें भारतीय और पाश्चात्य दोनों प्रेरणा-स्रोतों से प्राप्त हुई थी। भारत में बौद्ध तथा जैन धर्म का अहिंसा का सिद्धान्त तथा पाश्चात्य ईसाई धर्म का मूल धार्मिक ग्रंथ बाइबिल और उसमें भी ईसा द्वारा दिया गया पर्वत प्रवचन’ अहिंसा की दृष्टि से उनके मूल प्रेरणा-स्रोत थे। उन्होंने वैयक्तिक और सामाजिक दोनों क्षेत्रों में अहिंसा के प्रयोग पर बल ही नहीं दिया वरन् एक आदर्श समाज की स्थापना के लिए उसका प्रयोग अनिवार्य भी बताया। इसी दृष्टि से उन्होंने उसको परिभाषा की है।

अहिंसा की परिभाषा –

गाँधीजी के लिए अहिंसा मात्र सिद्धान्त नहीं वरन् एक जीवन-दर्शन की प्रतीक थी। इसी दृष्टि से उन्होंने मार्च सन् 1920 में ‘यंग इंडिया’ नामक अपने समाचार-पत्र में कहा कि “मेरे लिए अहिंसा एक दार्शनिक सिद्धान्त ही नहीं है वरन् एक जीवन- 1 दर्शन है। यह जीवन का ताना-बाना है। यह मस्तिष्क की वस्तु नहीं, हृदय की चीज है।” अहिंसा का शाब्दिक अर्थ है, “किसी की हत्या या हिंसा न करना।” अतः सामान्यतः हिंसा से आशय मानव की ऐसी प्रवृत्ति से लिया जाता है जो स्वार्थ, द्वेष, घृणा, वैमनस्य और क्रोध आदि का सहारा लेकर अपने विरोधी या प्रतिद्वन्द्वी को क्षति पहुँचाती है। ऐसी हिंसक प्रवृत्ति का त्याग अहिंसा है। अहिंसा के इसी चरित्र की ओर संकेत करते हुए उन्होंने ‘यंग इंडिया’ के उसी अंक में यह भी लिखा कि “पूर्ण अहिंसा सभी प्राणियों के प्रति दुर्भावना के अभाव का नाम है।” इस तरह से उनके मतानुसार प्राणी मात्र के प्रति मन, वचन और कर्म से दुर्भावना नहीं रखना और क्षति नहीं पहुँचाना ही अहिंसा है। दूसरे शब्दों में अहिंसा उनके अनुसार, “असीम या विशुद्ध प्रेम” है। गाँधीजी के एक अत्यन्त सहयोगी डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने इस आधार पर अहिंसा की परिभाषा करते हुए कहा है कि “गाँधीवादी अहिंसा में मनसा, वाचा, कर्मणा (मन, वचन और कर्म की) कोई हिंसा नहीं होती और क्रोध का सर्वथा अभाव होता है।

इतिहास के आधार पर अहिंसा का समर्थन

गाँधीजी ने इतिहास के आधार पर अहिंसा का समर्थन किया है तथा उसे मनुष्य का एक स्वाभाविक गुण बताया है। मनुष्य की अहिंसक प्रवृत्ति का यह प्रमाण है कि आदिम युग का हिंसक मनुष्य आज का एक सभ्य और सुसंस्कृत प्राणी बन गया है। ऐतिहासिक आधार पर हमें यह दृष्टिगत होता है कि आदिम काल की जंगली अवस्था से जैसे-जैसे मनुष्य सभ्यता की ओर अपने चरण बढ़ाता गया, वैसे-वैसे हिंसा का प्रयोग घटता गया और अहिंसा का प्रयोग बढ़ता गया। इस तरह उन्होंने इतिहास के आधार पर हिंसा की तुलना में अहिंसा को श्रेष्ठ सिद्ध किया क्योंकि प्रारम्भिक आखेट अवस्था से लगातार आज तक विकसित होने वाली विभिन्न सामाजिक अवस्थाओं के विकास की यही दिशा और कहानी रही है। पाशविक चल से आत्मिक बल की ओर प्रगति की कहानी ही मनुष्य सभ्यता के विकास की कहानी है। गाँधीजी की इस आधार पर यह मान्यता है कि आत्म-बल, शस्त्र बल की तुलना में अधिक शक्तिशाली और प्रभावोत्पादक होता है, फलत: अंत में अहिंसा की विजय और उसकी पराजय होती है।

अहिंसा के रूप

गाँधीजी ने अहिंसा के दो रूप बताये हैं- एक नकारात्मक रूप और दूसरा सकारात्मक रूप ।

नकारात्मक अहिंसा

गाँधीजी एक व्यावहारिक चिन्तक थे। उनकी मान्यता थी कि जीवन में अनेक ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं कि हिंसा से बचा नहीं जा सकता है। अतः उनके अनुसार, “जीवन के लिए हिंसा आवश्यक है लेकिन हमें उसका कम से कम पानी नितांत आवश्यक प्रयोग ही करना चाहिए।” गाँधी इस आधार पर उन परिस्थितियों का वर्णन करते हैं जबकि हिंसा का आश्रय लिया जाना उचित होता है। पहली, जीवन रक्षा के लिए हानिकारक कीटों का विनाश अर्थात मक्खी, मच्छर, खटमल आदि की हत्या। इसी प्रकार जंगली पशु भी यदि आक्रमण कर दे तो उसका वध करना भ्ज्ञी हिंसा नहीं है। दूसरी, अत्याचारी से दुर्बल की रक्षा करते हुए आवश्यकता होने पर उसका वध करना भी हिंसा नहीं है। दुर्बल व्यक्तियों, स्त्रियों तथा बालकों की अत्याचारी से रक्षा इसी कोटि में आती है। तीसरी असाध्य रोग से पीड़ित मनुष्य जिसके जीवित रहने की कोई सम्भावना न हो तथा जो सीमातीत उग्र पीड़ा से व्यथित हो। ऐसे व्यक्ति का जीवन समाप्त करना भी गाँधीजी के अनुसार हिंसा नहीं है।

सकारात्मक अहिंसा

गाँधीजी के अनुसार अहिंसा का दूसरा पक्ष उसका सकारात्मक पक्ष है। अहिंसा का नकारात्मक रूप उसके वास्तविक अर्थ को स्पष्ट नहीं करता है। सकारात्मक अहिंसा ही अहिंसा का सच्चा स्वरूप है। गाँधीजी ने इसे सार्वभौम प्रेम, करुणा और सद्भाव के नाम से पुकारा है। उनका कथन है, “अहिंसा उपने सकारात्मक रूप में सभी प्राणियों के प्रति प्रेमपूर्ण व्यवाहर का नाम हैं।” इसमें अहिंसा के निम्नलिखित रूप शामिल हैं-पहला, अहिंसा प्रेम की अवस्थ है। एक व्यक्ति प्रेम के माध्यम से अपने विरोधी को बुराई से मुक्त करने का प्रयास करता है। प्रेम से शत्रु विजय हर तरह की अहिंसा का लक्ष्य होता है। दूसरा, अहिंसा साधक असीम धैर्य नहीं खोता तथा असीम धैर्य का परिचय देते हुए अपने लय की ओर अग्रसर होने का प्रयास करता है। अहिंसा के माध्यम से वह अपनी दृढ़ आत्म-शक्ति का परिचय देता है। तीसरा, अहिंसक व्यक्ति निर्भय होता है। वह अन्याय और अत्याचार का निडर होकर सक्रिय विरोध करता है। अहिंसा अन्याय और अत्याचार को निष्क्रिय होकर न तो चुपचाप सहना है और न ही डरकर अत्याचारी के आगे आत्म-समर्पण करना है। चौथा, अहिंसा कायरता का नाम नहीं है वरन् वह अदम्य वीरता की स्थिति है। गाँधीजी ने अहिंसा के इसी पक्ष पर सबसे अधिक जोर दिया था क्योंकि कायरों ने अपनी कायरता को छिपाने के लिए इसे अपनी ढाल बना लिया था। गाँधीजी की मान्यता थी कि अहिंसा कायर का नहीं, वीर पुरुष का एक शस्त्र है और उसे वही अपना सकता है। जो सबल और साहसी है। उत्कृष्ट आमित्क शक्ति वाला व्यक्ति ही अहिंसा का मार्ग अपना सकता है और उसके माध्यम से अपने शत्रु का सफल मुकाबला कर उसका हृदय परिवर्तित कर सकता है । गाँधीजी के लिए वीरता का लक्षण शस्त्र बल नहीं वरन् आत्मिक बल था ।

अहिंसा के प्रकार

गाँधीजी का अहिंसा में दृढ़ विश्वास था तथा उसका वे वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर हरस्थिति में प्रयोग सम्भव मानते थे। इस दृष्टि से उन्होंने तीन प्रकार की अहिंसाओं का वर्णन किया है जो निम्नानुसार हैं:

1. जाग्रत अहिंसा- जाग्रत अहिंसा (Enlightened Non-violence) को गाँधी ने अहिंसा का सर्वोत्कृष्ट प्रकार या रूप माना है। यह आत्म बल सम्पन्न और जागरूक व्यक्तियों की अहिंसा है। इसे उन्होंने वीरों की अहिंसा के नाम से भी पुकारा है। इसका आधर दृढ़ आत्मिक शक्ति, नैतिकता, आध्यात्मिक क्षमता और भ्रातृत्व भाव होता है जाग्रत अहिंसाधारी व्यक्ति भौतिक दृष्टि से शक्तिशाली होकर भी उसका प्रयोग और प्रहार अपने शत्रु पर नहीं करता है। वह अहिंसक साधन अपनाकर ही अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करता है। इस दृष्टि से उसके मार्ग में कई व्यवधान आ सकते हैं लेकिन वह धैर्यपूर्वक उनका सामना करते हुए अपने अहिंसक मार्ग से विचलित नहीं होता है अतः इस प्रकार की अहिंसा में असीम शक्ति और अपार क्षमता होती है जो अंतत: उसे धारण करने वाले व्यक्ति की विजय का कारण बनती है। शत्रु का हृदय परिवर्तित हो जाता है और वह अपनी पराजय को भी सहर्ष स्वीकार कर लेता है क्योंकि अहिंसक व्यक्ति का उद्देश्य उसे क्षति पहुँचाना न होकर उसे सत्य से परिचित कराना होता है।

2. निर्बलों की अहिंसा- अहिंसा का दूसरा रूप निर्बलों की अहिंसा है। इसे ऐसे व्यक्तियों द्वारा अपनाया जाता है जो साधन-सम्पन्न नहीं होने के कारण अपने विरोधी की तुलना मैं भौतिक दृष्टि से कमजोर होते हैं। वे एक नीति के रूप में इस प्रकार की अहिंसा का प्रयोग करते हैं। ऐसे असहाय व्यक्तियों द्वारा अपनायी गयी इस अहिंसा को ‘औचित्यपूर्ण अहिंसा’ (Reason. able Non-violence) या ‘निष्क्रिय प्रतिरोध ‘(Passive Resistance) की संज्ञा दी जाती है। इस तरह की अहिंसा का प्रयोग आवश्यकता पड़ने पर किया जाता है तथा इससे एक सीमा तक ही वांछित लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। यह ‘जाग्रत अहिंसा’ के समान प्रभावशाली नहीं होती। अतः आवश्यक होने पर इस तरह की अहिंसा में हिंसा के प्रयोग की गुंजाइश भी होती है। यह अहिंसा आत्मिक बल पर नहीं, परिस्थितियों की माँग पर आधारित होती है। जाग्रत अहिंसाघारी व्यक्ति के लिए इस प्रकार की अहिंसा का कोई मूल्य और महत्व नहीं होता है।

3. कायरों की अहिंसा- अहिंसा का तीसरा रूप कायरों या भीरुओं की अहिंसा (Non-violence of the Cowards) का है। कायर लोग अपनी कायरता को छिपाने के लिए अहिंसक होने का स्वांग कर लेते हैं। गाँधीजी इस तरह की अहिंसा के घोर विरोधी थे। अत: इस तरह की अहिंसा के विचार को ठुकराते हुए उन्होंने इसकी कटु आलोचना की है। कायर की अहिंसा को वे अहिंसा नहीं मानते। इसको लक्ष्य करके वे कहते हैं, “कायरता और अहिंसा, और अहिंसा, पानी और आग की तरह एक साथ नहीं रह सकते।” उनके अनुसार अहिंसा वीरों का आभूषण है। “अहिंसा वीरस्य भूषणम” का सिद्धान्त उनकी मान्यता का आधारभूत सिद्धान्त था। अत: कायर की अहिंसा की तुलना में वे हिंसा को ज्यादा महत्व देते थे। उनका कहना था कि “यदि नपुंसकता को छिपाने के लिए अहिंसा की आवश्यकता है तो हृदय में हिंसा की भावना होने पर, हिंसक होना अधिक अच्छा है। इस प्रकार गाँधीजी कायरों की अहिंसा की तुलना में हिंसा को अधिक अच्छा समझते थे। गाँधीजी के अहिंसा सम्बन्धी उपर्युक्त विचारों के विश्लेषण से उसकी हमें निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगत होती है-

  1. अहिंसा का प्रमुख आधार आत्म बल है। विवेक और अंतःकरण की शुद्धता वाला व्यक्ति ही इसे अपनाने का सच्चा अधिकारी है।
  2. अहिंसा की शक्ति अहिंसक व्यक्ति की हिंसा करने की क्षमता के अनुसार निर्भर करती है, इच्छा पर नहीं।
  3. अहिंसा हिंसा से श्रेष्ठ तथा अहिंसक व्यक्ति हिंसक व्यक्ति से उत्कृष्ट और शक्तिशाली होता है।
  4. हिंसा पर अहिंसा की विजय निश्चित है। अहिंसा की पराजय कभी सम्भव नहीं।
  5. सत्य और ईश्वर के प्रति निष्ठावान व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में अहिंसक हो सकता हैं।
  6. कायरों की अहिंसा से हिंसा अधिक अच्छी है।

इन विशेषताओं के कारण गाँधीजी द्वारा प्रतिपादित अहिंसा का सिद्धान्त मनुष्य व्यवहार के एक सर्वोत्कृष्ट सिद्धान्त के रूप में हमारे सामने आता है। उन्होंने उसे एक ठोस आधार प्रदान कर हिंसा पीड़ित विश्व के सम्मुख हिंसा से मुक्ति का एक सशक्त विकल्प प्रस्तुत किया है। अतः आज भी उसकी प्रासंगिकता कायम ही नहीं है वरन् वह निरन्तर बढ़ती भी जा रही है। गाँधीजी के अहिंसावादी चिन्तन का महत्व इसी से स्वयं सिद्ध है।

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