गांधीजी के राजनीतिक विचार | Gandhi ji ke rajnitik Vichar

गांधीजी के राजनीतिक विचार | Gandhi ji ke rajnitik Vichar
गांधीजी के राजनीतिक विचार | Gandhi ji ke rajnitik Vichar

गांधीजी के राजनीतिक विचारों की विवेचना कीजिए। 

गाँधीजी के राजनीतिक विचार गाँधी जी के राजनीतिक विचारों को गाँधीवाद की संज्ञा दी जाती हैं। गाँधीवाद क्या है, इसकी सार्थकता कहाँ तक है, इसके मूल तत्व क्या है आदि प्रश्नों का उत्तर स्वयं देते हुए गाँधीजी कहते हैं कि-

गाँधीवादी विचारधारा के नाम से कोई दर्शन नहीं है न ही मैं अपने पीछे कोई वाद छोड़ना चाहता हूँ। मैं यह दावा नहीं करता कि मैंने किसी नये विचार अथवा सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। मैंने अपने ढंग से ही मानव जीवन की दैनिक समस्याओं को सुलझाने की चेष्टा है।”

गाँधीजी के राजनीतिक विचार किसी ग्रंथ में संकलित नहीं है। गाँधीजी के भाषण लेखों, तथा अनेक पुस्तको में उनके राजनीतिक विचार समाविष्ट है, वस्तुतः एक राजनीतिक विचारक न होकर एक आध्यात्मिक सन्त थे। उनके सिद्धान्तों और व्यवहार में कोई अन्तर न था। ये मनुष्य को प्रगति को ही समाज की प्रगति का आधार समझते थे। वे सत्य एवं अहिंसा के उपासक थे और सच्चे अर्थों में एक कर्मयोगी थे। वे ईश्वर, आत्मा, धर्म, नैतिकता आदि में गहरी आस्था रखते थे। वे राजनीति का आध्यात्मीकरण करने के पक्ष में थे। वे समाजवादी अवश्य थे परन्तु कार्ल मार्क्स के समान वर्ग संघर्ष और हिंसा में उनका कोई विश्वास न था। वे अराजकतावादी भी थे, परन्तु राज्य को नष्ट करने के स्थान पर अहिंसात्मक राज्य की कल्पना करते थे। सत्याग्रह तथा ट्रस्टीशिप में उनका अगाध विश्वास था उनका सम्पूर्ण राजदर्शन सत्य एवं अहिंसा के सिद्धान्त पर आधारित था। उनका कथन था कि हमें सत्य और अहिंसा को विशेष व्यक्ति के सिद्धान्त के रूप में महत्वपूर्ण नहीं बनाना है वरन् उन्हें सर्वसाधारण, समस्त संघ एवं समुदायों के लिए लोकप्रिय सिद्धान्त बनाना है। मेरा यह स्वप्नवत आदर्श नहीं है और न ही में इसमें विश्वास करता हूँ कि आध्यात्मिक सिद्धान्त स्वतः लोकप्रिय हो सकते हैं।”

गाँधीजी साध्य और साधन को समान महत्व देते थे। उनका कथन था कि सर्वोच्च साध्य की प्राप्ति के लिए साधन का भी सर्वोच्च होना आवश्यक है। वे हिंसा के पक्ष में नहीं थे। उनके साधन सत्य, अहिंसा और प्रेम थे। इन साधनों द्वारा ही वे महान से महान साध्य या लक्ष्य को प्राप्त करने का दावा करते थे।

(1) सत्य- गाँधीजी ने सत्य के तत्व की व्याक्ष्या की और इसके सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक दोनों पक्षों पर बल दिया। उन्होंने इस बात की वकालत की कि सत्य के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। उनका कहना था कि ‘सत्य ही ईश्वर है’, सत्य के अभाव में किसी भी नियम का शुद्ध पालन नहीं किया जा सकता है। सत्य अन्तःकरण की आवाज है। वाणी, विचार और आचार में सत्य होना ही सत्य है साथ ही उपासना ही सच्ची ईश्वर भक्ति है। इस प्रकार सत्य गाँधीजी के तत्व ज्ञान का केन्द्र है।

(2) अहिंसा- गाँधीजी अहिंसा के उपासक थे। वे अहिंसा के तीन रूप बताते थे, जो इस प्रकार है-

(i) शक्तिशाली व्यक्तियों की अहिंसा, जिनका अहिंसा में नैतिक विश्वास हो

(ii) दुर्बल और असहाय व्यक्यिों की सामयिक अहिंसा ।

(iii) कायर व्यक्तियों की अहिंसा जो भय और आतंक के कारण अहिंसा को स्वीकार करते हैं।

गाँधीजी का विचार है कि हृदय से प्रेरित अहिंसा ही सच्ची है। हिंसा की भावना रखने वाला व्यक्ति यदि अहिंसा का व्यवहार रखता है तो वह सफल नहीं हो सकता। गाँधीजी के अनुसार मन, वचन, कर्म से किसी को हानि न पहुँचाना ही अहिंसा है। वे अहिंसा के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों को मान्यता देते थे। उनका कहना था कि प्रत्येक व्यक्ति को सबका भला करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। उनके अनुसार “अहिंसा का अर्थ है सर्वोच्च प्रेम, सर्वोच्च आत्म बलिदान तथा सर्वोच्च उदारता ।” उनकी अहिंसा सदैव ही हिंसा से उच्च और श्रेष्ठ होती है।

(3) सत्याग्रह- गाँधीजी सत्याग्रह को सुधार का एक विशेष हथियार मानते थे। वे इस हथियार के बल पर बुराई तथा दोषों का उन्मूलन करना चाहते थे। इसी हथियार की शक्ति पर उन्होंने संसार के सबसे अधिक शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य से टक्कर ली।

गाँधीजी सत्याग्रह का अर्थ बताते हुए कहते थे कि “दूसरों के प्रति स्नेह प्रकट करके अथवा अपने को कष्ट में डालकर एक व्यक्ति अपनी सत्यता का उज्जवल प्रमाण दे सकता है। सत्य दूसरो को दुख देने का विरोध करता है और उसका पालन करने वाला वास्तव में बहुत ही वीर एवं शक्तिशाली व्यक्ति होता है।” गाँधीजी के अनुसार सत्याग्रह के अनेक रूप हो सकते हैं। जैसे- असहयोग, सुविधाओं
का बहिष्कार, भूख हड़ताल आदि। गाँधीजी असहयोग की शक्ति को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं-

निरंकुश से निरंकुश सरकार भी जन सहयोग के बिना स्थिर नहीं रह सकती। यदि शासन इस सहयोग को बलपूर्वक प्राप्त करने का प्रयत्न करेगा तो भी उसे अल्पकालीन सफलता मिल सकती है और उसके भाव के बाद शीघ्र ही जनमत उसका प्रबल विरोध आरम्भ कर देता है।”

गाँधीजी के राज्य सम्बन्धी विचार

 गाँधीजी कुछ अर्थों में अराजकतावादी थे। वे टालस्टाय के समान ही राज्य के विरोधी थे। वे भिन्न आधारों पर राज्य की आलोचना करते थे-

(1) राज्य साधन और व्यक्ति साध्य है।

(2) राज्य एक अनावश्यक, अस्थाई तथा वर्गीय संस्था है। संयमी व्यक्ति अपने जीवन को नियमित करके राज्य के अभाव में भी सुखपूर्वक रह सकता है।

(3) राज्य हिंसा का प्रतीक होता है। वह हिंसात्मक शक्ति के आधार पर नागरिकों से अपने आदेश का पालन करवाता है। राज्य का आधार ही पशु बल होता है।

(4) राज्य में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता सुरक्षित नहीं रहती है। गाँधीजी के अनुसार- “मैं राज्य की शक्ति में विस्तार को सबसे अधिक भय की दृष्टि से देखता हूँ क्योंकि यद्यपि वह शोषण को कम करके भलाई करता हुआ दिखलाई पड़ता है। यद्यपि व्यक्तिगत का विनाश करके, जो कि सम्पूर्ण प्रगति का मूल है मानव जाति को सबसे बड़ी क्षति पहुँचती है।”

इस प्रकार गाँधीजी के राज्य सम्बन्धी विचार ‘प्रोध’, ‘वैकुनिन’ आदि अराजकतावादियों से मिलते-जुलते हैं।

गाँधीजी और समाजवाद

गाँधीजी किस सीमा तक समाजवादी थे इस बात का अध्ययन हमने गाँधी के विश्लेषणात्मक आधार पर किया है-

  1. समाज में निर्धनों के शोषण का अन्त होना चाहिए।
  2. समाज में किसी वर्ग विशेष की सम्प्रभुता नहीं होनी चाहिए।
  3. समाज के सभी वर्गों को समान अधिकार और समुचित महत्व मिलना चाहिए।
  4. भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व अनुचित है।
  5. गाँधीजी के अनुसार वर्ग व्यवस्था और ट्रस्टीशिप अनुचित है।
  6. गाँधीजी वर्ग संघर्ष, हिंसात्मक क्रान्ति, सर्वहारा वर्ग की तानाशाही तथा राष्ट्रीयकरण के विरोधी थे।
  7. वे पूँजीपतियों को बलपूर्वक नष्ट करने के पक्ष में नहीं हैं। वे शिक्षा, उपदेश तथा प्रचार आदि से पूँजीपतियों का हृदय परिवर्तित करना चाहते हैं।

गाँधीजी और साम्यवाद- गाँधीजी साम्यवादी नहीं थे। गाँधीजी के साम्यवादी विचारों का अध्ययन उनके विचारों के पूर्णतया विपरीत था क्योंकि गाँधीजी और साम्यवादी दोनों ही परस्पर विरोधी विचारधारा हैं।

गाँधीजी के राजदर्शन का महत्व

 गाँधीजी विश्व के एक महान व्यक्ति, समाज सुधारक, आध्यात्मिक नेता, नैतिकता के पुजारी तथा राजनीतिक कर्मयोगी थे। उनके राजदर्शन का महत्व निम्नलिखित तथ्यों से स्वतः स्पष्ट होता है-

  1. गाँधीजी ने सत्य की खोज की और सत्य को ही अपने जीवन का केन्द्र बिन्द बनाया।
  2. गाँधीजी का राजदर्शन सत्य, प्रेम, अहिंसा, सत्याग्रह, असहयोग, वर्ग व्यवस्था तथा उपवास आदि तत्वों पर आधारित था।
  3. गाँधी जी लोकतंत्र के पोषक थे।
  4. गाँधीजी अल्पमतों के हितों के संरक्षक थे।
  5. गाँधीजी का अहिंसा सिद्धान्त विश्व प्रसिद्ध है।
  6. गाँधीजी सत्य व अहिंसा के आधार पर आदर्श समाज की स्थापना चाहते थे।

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