अम्बेडकर के लोकतंत्र सम्बन्धी विचार

अम्बेडकर के लोकतंत्र सम्बन्धी विचार
अम्बेडकर के लोकतंत्र सम्बन्धी विचार

अम्बेडकर के लोकतंत्र सम्बन्धी विचार

डा0 अम्बेडकर और लोकतंत्र – डा0 अम्बेडकर यद्यपि एक लोकतन्त्रवादी थे लेकिन वे लोकतन्त्र की पश्चिमी अवधारणा से पूर्णत: सहमत नहीं थे। उनके अनुसार लोकतन्त्र को सिर्फ जनता द्वारा चुने हुए तथा उसके प्रति उत्तरदायी प्रतिनिधियों का शासन ही नहीं मानते थे। उनके अनुसार यह सिर्फ एक राजनीतिक लोकतन्त्र या अपूर्ण लोकतंत्र की अवधारणा ही है। अतः इसे अस्वीकृत करते हुए उन्होंने लोकतंत्र की पूर्णता को ध्यान में रखते हुए उसकी परिभाषा करते हुए कहा कि “लोकतन्त्र एक ऐसी शासन पद्धति का प्रतिनिधित्व करता है जिसके माध्यम से लोगों के राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक और आर्थिक जीवन में भी, बिना रक्तरंजित तरीकों को अपनाये आमूल चूल परिवर्तनों को व्यावहारिक रूप प्रदान किया जा सके।” अर्थात उनका लोकतंत्र पश्चिम की तरह सिर्फ राजनीतिक ही नहीं है, वरन् वह अनिवार्य रूप से एक सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के रूप का प्रतिनिधित्व भी करता है तथा इस दृष्टि से जाग्रत जनमत के माध्यम से आवश्यक अहिंसक परिवर्तन करने की क्षमता रखता है।

इस प्रकार डा. अम्बेडकर के अनुसार लोकतंत्र की दो प्रमुख विशेषताएं हैं- पहली, राजनीतिक दृष्टि से विधि का शासन तथा सभी के सम्मुख समानता तथा दूसरी सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तनों के प्रति आस्था, ताकि सामाजिक व्यवस्था को सामाजिक न्याय के आदर्शों के अनुकूल बनाया जा सके। इन विशेषताओं से युक्त लोकतंत्र ही उनके अनुसार एक पूर्ण लोकतंत्र की छवि प्रस्तुत करता है।

लोकतांत्रिक शासन पद्धति की दृष्टि से डा. अम्बेडकर उसकी संसदीय पद्धति को प्राथमिकता प्रदान करते हैं क्योंकि इसमें कार्यपालिका अर्थात मंत्री मण्डल को सदैव जनमत के प्रति संवेदनशील रहकर उत्तरदायीपूर्ण ढंग से शासन कार्य का संचालन करना पड़ता है। इसकी निर्णय पद्धति संसद तथा संसद के बाहर वाद-विवाद तथा खुली चर्चा पर आधारित होती है लकिन संसदीय जनतन्त्र के समर्थक होते हुए भी वे इस बात के पक्ष में थे कि उसे उपनाने के पूर्व इस बात की समीक्षा की जानी चाहिए कि वह पश्चिमी देशों में उस रूप से सफल क्यों नहीं हो सका जैसी कि उससे अपेक्षा की गयी थी। इस दृष्टि से चिन्तन करने पर उन्हें संसदीय जनतन्त्र के दो दोष मुख्य रूप से दृष्टिगत हुए जिनका निराकरण उसकी पूर्णता और सफलता के लिए आवश्यक था।

उन्हें इस दृष्टि से संसदीय जनतन्त्र का पहला दोष यह दिखाई दिया कि उसमें विधि के सम्मुख समानता का सिद्धांत एक गतिशील नहीं वरन् एक रूढ़ सिद्धांत बन गया है। फलतः समाज में विद्यमान सामाजिक और आर्थिक विषमताओं के उन्मूलन की तरफ उसमें ध्यान नहीं दिया गया है। उनका मत था कि विधि के सम्मुख समानता का सिद्धांत लोकतान्त्रिक जीवन का जीवन्त आदर्श तभी बन सकता है जबकि समाज में व्याप्त सामाजिक और आर्थिक विषमताओं का अन्त कर दिया जाये, तभी हम इस बात की अपेक्षा कर सकते हैं कि सभी व्यक्ति समान रूप. से विधि के संरक्षणों से लाभान्वित होने की स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं। उनके अनुसार उनका दूसरा दोष यह है कि उसकी निर्णय प्रक्रिया अति विलम्बकारी है। समय पर निर्णय न ले पाने के कारण सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन उस तीव्र गति से उसमें सम्पन्न नहीं हो पाते हैं जिसकी कि समाज उससे उपेक्षा करता है। अतः इस दोष से उसे मुक्त किये जाने की आवश्यकता है, ताकि सामाजिक आर्थिक परिवर्तनों की अपेक्षा और गति में जो अन्तर है, उसे कम से कम किया जा सके और वह अवसर अनुकूल निर्णय लेने की स्थिति प्राप्त कर सके। उसके इन दोनों दोषों को दूर करने के लिए डा. अम्बेडकर ने कुछ ऐसे संवैधानिक प्रावधानों को अपनाये जाने की आवश्यकता अनुभव की जिससे कि वह आवश्यक गतिशीलता के साथ उनसे प्रतिबन्धित होकर सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने की स्थिति प्राप्त कर सके।

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