डा0 अम्बेडकर के राजनीतिक विचार

डा0 अम्बेडकर के राजनीतिक विचार
डा0 अम्बेडकर के राजनीतिक विचार

डा0 अम्बेडर के राजनीतिक विचार का उल्लेख कीजिए।

डा0 अम्बेडकर के राजनीतिक विचार

डा० अम्बेडकर के राजनीतिक विचार दर्शन का अध्ययन के लिए हमें निम्नलिखित दृष्टिकोण से गुजरना होगा।

1. उनका राजनीति के प्रति दृष्टिकोण- राजनीति में सिर्फ ‘मूल्यों में विश्वास’ उस समय तक कारगर नहीं होता जब तक इन मूल्यों की निरन्तर घनी होती हुई मानवीय यातना और गुलामी के सन्दर्भ में एक तात्कालिक, जीवन्त प्रश्न के रूप में नहीं प्रस्तुत किया जाता। यहाँ राजसत्ता से निर्वासन नहीं, सीधा-सादा सामना करना पड़ता हो। भारतीय राजनीति में अम्बेडकर शायद पहले व्यक्ति थे जिन्होंने राजनीतिक क्षितिज पर पाप और दुराचार को उगते देखा था, लेकिन सवाल इससे कतराने का नहीं था, सवाल था मानवीय स्वतन्त्रता और न्याय के अमूर्त नैतिक मूल्यों को राजनीति के गंदले, भयावह और धूल, मिट्टी, खून में लिखड़े मैदान के बीच अनुदित और आलोकित करने का, अम्बेडकर ने पक्षपात की उपेक्षा की और लोगों को राजनीति की जगह समाज सेवा से जोड़ना चाहा। उनकी दृष्टि में धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक समस्यायें राजनीति के कार्य से नहीं पैदा होती थीं। यही उनकी सोच की बुनियादी गलती थी। राजनीति का गन्दा नाला, आर्थिक असमानता के स्रोत से निकलता है और यहीं से सामाजिक असमानता का भयावह वातावरण जंगल की तरह फैलता है।

2. उनके स्वतंत्रता सम्बन्धी विचार- इस सम्बन्ध में उनकी यह पंक्तियों सारपूर्ण हैं- “लक्ष्य है, लेकिन कोई रास्ता नहीं है, जिसे हम रास्ता मानते हैं वह सिर्फ हिचकिचाहट है।” डॉ. अम्बेडकर ने सत्ता और स्वतन्त्रता, राजनीति और नैतिकता के बीच चुनौती से मुंह मोड़कर सिर्फ मानवीय मूल्यों में अपना सत्य ढूँढना था, किन्तु वहाँ और सत्य था नहीं। इसीलिए जब देश स्वाधीनता की लड़ाई लड़ रहा था, वे अछूतों के प्रति समाजसेवा की जिन्दगी गुजार रहे थे। यदि सत्य कहें तो उन्हें स्वतन्त्रता के आन्दोलन में कोई वास्तविक रुचि नहीं थी, यह उनके जीवन का “सबसे ट्रेजिक पहलू था। इतिहास में लौहवत् नियमों का अतिक्रमण करने के प्रयास में वे अपने लक्ष्य से भटक गये थे।

3. प्रजातन्त्र (लोकतंत्र ) पर विचार- औद्योगिक क्रांति की आवश्यकताओं ने पश्चिम में जिस प्रकार के राजनीतिज्ञ पैदा किये शायद अम्बेडकर उनसे अलग नहीं थे। अम्बेडकर ने लोकतान्त्रिक समाजवादियों के अनुरूप प्रजातन्त्र की परिभाषा गढ़ी। उनका कहना था, प्रजातन्त्र बिना रक्तपात के जनता के सामाजिक, आर्थिक जीवन में क्रांति लाने का सामूहिक प्रयत्न है। पश्चिम में लोकतात्रिक समाजवादी भी सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन में आस्था रखते थे लेकिन उन्हें भी रक्तपात से डर लगता था। वे प्रकारान्तर से इस प्रकार पूंजीवाद को समर्थन कर देते थे क्योंकि उत्पादन के साधन जब समाज के हो जायें तब समाजवादी राज्य की स्थापना होती है और उत्पादन के साधनों पर पूंजीपति आसानी से अपना नियन्त्रण नहीं खोता। इस प्रकार उनकी परिभाषा मौलिक नहीं थी। वे कहते थे, प्रजातंत्र की सफलता के लिए समानता का होना, मजबूत विपक्ष, प्रशासनिक व कानूनी समानता, वैधानिक नैतिकता एवं सामाजिक नैतिकता एवं सद्विवेक की आवश्यकता होती है। वहाँ किसी भी वर्ग के विशेषाधिकार नहीं होते। लेकिन प्रश्न उठता है, डॉ० अम्बेडकर ने किस प्रकार आर्थिक असमानता के लिए संविधान के पृष्ठों में जगह खोज ली? उन्होंने जान-बूझकर या अनजाने में अपने अन्तर्विरोधों के द्वारा जिस व्यवस्था का समर्थन किया वह स्वर में अनैतिक और शोषणकारी व्यवस्था थी। दरअसल वे भारतीय संस्कृति के ठीक बीच रहते हुए भी राजनीति में आउट साइड थे। उन्होंने राजनीति के प्रोफेसनल ढाँचे को तोड़ने का प्रयास नहीं किया।

4. अल्पसंख्यकों के बारे में- डा0 अम्बेडकर इस समस्या के बारे में आधिक तार्किक नहीं थे। हालांकि इस समस्या को भी उन्होंने गहरायी से नहीं देखा, वे अल्पसंख्यकों के हितों के समाधान की गारन्टी चाहते थे। वे सम्प्रदायों की अस्मिता के प्रति जागरूक थे। वे अल्पसंख्यकों के अधिकारों के प्रति सचेत थे लेकिन समुदाय में सुरक्षा की शंका क्यों पैदा होती है या इस असुरक्षा की भावना को विकसित करने वालों के हित किसके पक्ष में होते हैं, इसकी उन्होंने तर्कपूर्ण व्याख्या नहीं की। हालांकि वे कहते थे कि राष्ट्र के पास विखण्डन का अधिकार होना चाहिए। वे चाहते थे कि हर सम्प्रदाय अपने अधिकारों व अपनी मांगों और सुरक्षा के प्रति जागरूक रहे। वे कम से कम अल्पसंख्यकों के हितों की गारन्टी के सम्बन्ध में कुछ हदों तक तार्किक थे। उन्होंने सम्प्रदाय और राष्ट्र के बीच अन्तर को स्पष्ट करने का प्रयास किया। उन्होंने साफ साफ कहा कि अगर सवाल सुरक्षा का उठता है तो उन्हें राष्ट्र के प्रथक्करण का अधिकार है।

5. शक्ति की अवधारणा- अम्बेडकर की अवधारणा थी कि राजकीय शक्ति अपना पृथक अस्तित्व रखते हुए मानव व्यवहार के लिए उत्प्रेरक का कार्य करता है। वे मानते थे कि व्यक्ति का व्यवहार धर्म और आर्थिक आधारों से संचालित होता है।

6. समाजवाद पर विचार- अम्बेडकर राज्य समाजवाद के पक्ष में अपने विचार रखते थे। वे मार्क्सवाद की समाजवादी एवं साम्यवादी अवधारणा से सन्तुष्ट नहीं थे। इसलिए वे प्रकारान्तर से पूँजीवाद के पक्ष में चले जाते थे। वे इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या को समझ नहीं पाये। यह सही था कि औद्योगीकरण के रास्ते से ही भारत के लोगों की उन्नति के लिए दरवाजे खुल सकते थे। वे मानते थे कि राज्य समाजवाद संवैधानिक तरीके से लागू किया जाता रहा तो तानाशाही की सम्भावना समाप्त हो सकती है, लेकिन भारत के संविधान में जब संपत्ति के अधिकार शामिल होने की बात उठी तो उन्होंने इसका विरोध नहीं किया। भारत का संविधान किस वर्ग के हितों की रक्षा कर रहा था या कौन सा वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए संविधान का निर्माण उनके द्वारा करा रहा था। आज उस संविधान का परिणाम हैं कि शोषण के लिए खुली छूट दी और वह था संपत्ति का अधिकार कानून हर प्रकार के साधन सम्पन्न व्यक्तियों की हिमायत करता है।

7. संविधान का निर्माण- भारत के संविधान का निर्माण कार्य डा. अम्बेडकर को सौंपा गया और इसके लिए एक संविधानसभा का गठन किया गया। वैसे अम्बेडकर ने साफ-साफ कहा था कि इस संविधान का निर्माण अपनी इच्छा के विरुद्ध किया है। वस्तुतः संविधान चाहे कैसी भी समता, सामाजिकता और न्याय की गारन्टी देता हो लेकिन व्यावहारिक रूप में वह साधन सम्पन्नों के हितों की पूर्ति करता है। अम्बेडकर कहते थे, संविधान और कानून में अन्तर है। संविधान ने लोकतांत्रिक व्यवस्था की रचना के रूप में संसद की सर्वोच्चता स्थापित अवश्य को लेकिन कानून और अधिकारों की इस तरह व्याख्या की गई कि व्यावहारिक दृष्टि से साधन सम्पन्नों द्वारा साधन विपन्नों के अधिकार का प्रतीक बन गये।

डा. अम्बेडकर के विचारों का मूल्यांकन- अम्बेडकर समझते थे कि भारत के विराट, पेचीदा, औपनिवेशिक समस्याओं के संदर्भ में कोई भी व्यक्ति महज निरा संत या राजनीतिज्ञ रहकर भारतीय दायित्व पूरा नहीं कर सकता, खुद उनके सत्य अपने घेरे में नहीं पा सकता। उनका जीवन, इसी संदेश का प्रतीक और वाहक था। वे मानव मूल्यों को अन्य मूल्यों की तुलना में श्रेष्ठ समझते थे। डा0 अम्बेडकर ने इस प्रकार संविधान के जरिये शोषित जातियों को न्यायिक अधिकार तो दिला दिये लेकिन व्यवहारिक रूप से न्याय तभी वो दिला सकते थे जब वे इस ढांचे के भौतिक अधिकारों को तोड़ते या तोड़ने के लिए कार्य करते और यह कार्य सर्वहारा शक्तियों में क्रांतिकारी प्रेरणा फूँकने से ही हो सकता था। वे सरकार द्वारा दलितों की समस्याओं का निदान चाहते थे इसलिए उन्होंने पंचायतों को मूल ईकाई बनाने का विरोध भी किया। वे सोचते थे कि इस प्रकार दलित जातियाँ क्रांतिकारी शक्ति का स्वरूप ग्रहण कर सकती थीं।

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