तिलक के राजनीतिक विचार | Tilak’s political views in Hindi

तिलक के राजनीतिक विचार | Tilak's political views in Hindi
तिलक के राजनीतिक विचार | Tilak’s political views in Hindi

तिलक के राजनीतिक विचारों की विवेचना कीजिए। 

तिलक ने सन् 1889 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्यता प्राप्त की थी और इस समय से उनके राजनीतिक विचारों का क्रम प्रारम्भ होता है। सन् 1889-94 के वर्षों में तिलक भी उदारवादी विचारधार के समर्थक थे। उन्होंने इन वर्षों में कांग्रेस के उदारवादी कार्यक्रम और मार्ग का समर्थन किया और वे इस बात को स्वीकार करते थे कि कांग्रेस ने अपनी संवैधानिक नीति तथा प्रस्तावित सुधारों की मांग से अनेक उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं। कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन (1891) में उन्होंने कहा था कि उनका लक्ष्य शासन को दुर्बल बनाना नहीं है।” लेकिन उनके राजनीतिक और सामाजिक चिन्तन का मूलाधार उदारवादियों से भिन्न था, अतः वे अधिक समय तक उदारवादी विचारधारा के साथ जुड़े नहीं रहे। सन् 1895 से उनके राजनीतिक चिन्तन में परिपक्वता आई और ब्रिटिश सरकार के भारत विरोधी कार्यों तथा स्वयं के राष्ट्रवादी विचारों ने उन्हें उदारवादियों

से अलग कर दिया। उनके राजनीतिक चिन्तन की प्रमुख बातों का संक्षिप्त उल्लेख इस प्रकार है-

 तिलक का राष्ट्रवाद : अंशतया पुनरूथानवादी राष्ट्रवाद

तिलक का राष्ट्रवाद, अंशतया पुनरुत्थानवादी और पुनर्निर्माणवादी था। उन्होंने वेदों तथा गीता से आध्यात्मिक शक्ति एवं राष्ट्रीय उत्साह ग्रहण करने का सन्देश दिया और बतलाया कि. भारत को प्राचीन परम्पराओं के आधार पर ही आज के भारत के लिए स्वस्थ राष्ट्रवाद की स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रसंग में अपने विचार व्यक्त करते हुए ‘मराठा’ में उन्होंने लिखा, “सच्चा राष्ट्रवाद पुरानी नींव पर ही निर्माण करना चाहता है। जो सुधार पुरातन के प्रति घोर असम्मान की भावना पर आधारित है, उसे सच्चा राष्ट्रवादी रचनात्मक कार्य नहीं समझता। हम अपनी संस्थाओं को ब्रिटिश ढाँचे में नहीं ढालना चाहते, सामाजिक तथा राजनीतिक सुधार के नाम पर हम उनका अराष्ट्रीयकरण नहीं करना चाहते।”

तिलक ने भारतीयों में यह भवना उत्पन्न करने का अथक प्रयास किया कि उन्हें गीता और वेदों के महान् सन्देशों में नई शक्ति और नई चेतना ग्रहण करनी चाहिए। ऐसा करने पर ही भारत वह आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त कर सकेगा, जिसके बल पर ब्रिटिश नौकरशाही से टक्कर लेकर स्वराज्य प्राप्त किया जा सकेगा। सुधारों के नाम पर प्राचीनता का अनादर करना राष्ट्रीयता के पतन का प्रतीक है। यदि भारत में सच्ची राष्ट्रीयता का प्रसार करना है तो उसके लिए आवश्यक है कि प्राचीन संस्कृति का पुर्नजागरण करना चाहिए।

तिलक की मान्यता थी कि राष्ट्रवाद एक आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक धारणा है। उनका कहना था कि प्राचीनकाल में आदिम जातियों के मन में अपने कबीले के प्रति जो भक्ति भावना विद्यमान थी। उसी का आधुनिक नाम राष्ट्रवाद है। इस राष्ट्रवाद का सम्बन्ध तीव्र संवेगों तथा अनुभूतियों से होता है। प्राचीनकाल में जो आत्मिक प्रभाव और लगाव एक क्षेत्र विशेष तक सीमित थे, वे अब राष्ट्रवाद के अन्तर्गत सम्पूर्ण राष्ट्र में व्याप्त हो गए हैं जिसके परिणामस्वरूप आज राष्ट्रवाद की भावना किसी क्षेत्र विशेष कि प्रति नहीं अपितु समूचे राष्ट्र के प्रति अनुभव की जाती है। तिलक की मान्यता थी कि जो राष्ट्रवाद राष्ट्रीय एकता पर आधारित होता है, वही सच्चा और स्वस्थ राष्ट्रवाद है। तिलक का मत था कि विभिन्न विचारधाराओं, जातीय भेदों, अस्वस्थ मत-मतान्तरों, आदि के परिणामस्वरूप देश में राष्ट्रीयता की भावना उस तीव्र गति से नहीं पनप पाती जिस तेजी से यह समान भाषा, समान धर्म और समान संस्कृति वाले देश में पनप सकती हैं। यही कारण था कि उन्होंने भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक तत्वों पर अधिकाधिक बल दिया। ये तत्व भारत में प्राचीनकाल से ही विद्यमान थे और अब उन्हें पुनः जगाने और संगठित करने की ही आवश्यकता शेष थी।

तिलक के प्रत्येक कार्य और प्रत्येक भाषण में एकता की भावना सर्वोपरि रहती थी, चाहे वह धार्मिक भाषण हो या राजनीतिक, सामाजिक या कोई अन्य। तिलक ने भारत में एकता की प्रस्थापना का मार्ग बतलाते हुए कहा कि “भारत में विद्यमान विभिन्न पंथ वैदिक धर्म की शाखाएं, प्रशाखाएं हैं। यदि यह बात ध्यान में रखी जाय और हम विभिन्न मतों के बीच एकता स्थापित करने का प्रयत्न करें तो यह एक महान शक्ति बन सकती है। जब तक आपस में भेद है और हम विभाजित हैं, तब तक एक मत दूसरे से सामंजस्य और एकता का अनुभव नहीं करता, हम हिन्दुओं के रूप में आगे नहीं बढ़ सकते।”

हिन्दुओं में सामंजस्य और एकता की भावन उत्पन्न करने के उद्देश्य से तिलक ने राष्ट्रवाद के विकास में सार्वजनिक उत्सवों को महत्वपूर्ण माना। राष्ट्रीयता को आध्यात्मिक और सांस्कृतिक स्वरूप प्रदान करने के उद्देश्य से ही उन्होंने ‘गणपति उत्सव’ तथा ‘शिवाजी उत्सव’ मनाना शुरू किये। उन्होंने ने ‘केसरी’ में लेख लिखकर ‘गणपति पूजा’ की तुलना ‘यूनान के ओलम्पियन और पिथियन’ उत्सव से की। तिलक की मान्यता थी कि इन उत्सवों का आयोजन प्रतीक स्वरूप है जिनसे राष्ट्रवाद की भावना पनपती है। राष्ट्रीय उत्सव, राष्ट्रगान, राष्ट्रीय ध्वज, आदि देशवासियों के संबिंगों और भावों में तीव्रता लाते हैं तथा उन्हें सुप्त नहीं होने देते इसे ‘राष्ट्र के प्रदर्शन की संज्ञा दी जा सकती है, जिससे सांस्कृतिक अभिवृद्धि होती है तथा समूह राष्ट्रवाद का निर्माण होता है।

क्या तिलक कोरे हिन्दू राष्ट्रवादी और मुस्लिम विरोधी थे?

तिलक के व्यक्तिगत रूप से हिन्दू धर्म तथा संस्कृति पर भारी गर्व था और उनके राष्ट्रवादी चिन्तन में अंशतया पुनरुत्थानवाद के तत्व देखे जाते है। इस आधार पर उनके कुछ आलोचक कहते है कि वे कोरे हिन्दू राष्ट्रवादी थे और मुस्लमानों के विरुद्ध थे जकारिया का कहना था “हिन्दुओं की मुस्लिम विरोधी बदले की भावना के प्रतिनिधि थे।” अंग्रेज इतिहासकार पॉवल प्राइस लिखता है, “मुस्लिम लीग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जवाब थी और आवश्यक भी थी, क्योंकि तिलक की असहिष्णुता से पृथकत्व की जिस भावना को बल मिला था, वह स्वशासन की सम्भावना से और भी अधिक तीव्र हो गई थी।” मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और राष्ट्रीय आन्दोलन से अलग रहा, रजनी पामदत्त ने इसके लिए तिलक और अरविन्द घोष को दोषी ठहराया है। उसका कहना है कि इन दोनों ने राष्ट्रीय जागरण को हिन्दू पुनरुत्थानवाद के साथ जोड़ दिया था, इसलिए मुस्लिम जनता राष्ट्रीय आन्दोलन से अलग हो गई। इसके अतिरिक्त शिरोल ने भी ऐसा विचार व्यक्त किये है। किन्तु तिलक के सम्बन्ध मे ये सभी मान्यताएं न केवल अधूरी र नितान्त असत्य हैं। तिलक के राजनीतिक विचारों तथा कार्यों की ये गलत व्याख्याएं हैं-

सर्वप्रथम तिलक के धार्मिक पुनरुत्थानवादी विचारों के कारण मुसलमानों का एक वर्ग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और राष्ट्रीय आन्दोलन से अलग हो गया, यह बात कालक्रम की दृष्टि से भी नितान्त गलत है। तिलक ने 1890 के लगभग सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया था और 1893 तक उनकी ऐसी कोई स्थिति नहीं थी कि वह अन्य व्यक्तियों की राजनीतिक विचारधारा को प्रभावित कर सकें। दूसरी ओर मुसलमानों की कांग्रेस और राष्ट्रीय आन्दोलन से पृथक रहने की स्थिति 1885 से ही और स्पष्ट रूप में 1888 से प्रारम्भ हो गई थी। इस स्थिति के लिए तो शासन की फूट डालने की नीति और सैयद अहमद खाँ जैसे मुस्लिम नेताओं के विचार उत्तरदायी थे। तिलक न तो इसके लिए उत्तरदायी थे और न ही हो सकते थे।

द्वितीय, तिलक के राष्ट्रवाद में कोरा धार्मिक पुनरुत्थानवाद नहीं है, उन्होंने राष्ट्रवाद के आर्थिक आधारों को भी स्वीकार और प्रतिपादित किया है। दादाभाई नौरोजी ने भारतीय अर्थशास्त्र में जिस ‘निर्गम सिद्धान्त’ को विख्यात कर दिया था। तिलक और गोखले दोनों ने उसे स्वीकार करते हुए इस बात का प्रतिपादन किया कि विदेशी शासन के कारण भारत के आर्थिक साधनों का बहुत बड़ी मात्रा में भारत से बाहर निर्गम हुआ है। इसके अतिरिक्त तिलक ने राष्ट्रीय आन्दोलन के सबसे अधिक प्रमुख साधन के रूप में ‘बहिष्कार और स्वदेशी’ को अपनाया था और यह प्रमुख रूप में राष्ट्रवाद का आर्थिक आधार ही था, धार्मिक पुनरुत्थानवादी आधार नहीं।

तृतीय जिन्ना, एम. ए. अंसारी और हसन इमाम ने तिलक की राष्ट्रवादी भावनाओं और समझौते की प्रवृत्ति की सराहना की है, क्योंकि उनकी बुद्धिमत्तापूर्ण सलाह और नरम रीति के कारण ही 1916 का ‘लखनऊ समझीता’ सम्पादित हो सका था। मुहम्मद अली, शौकत अली और हसरत मुहानी तिलक को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। शौकत अली ने लिखा है, पुनः सौवीं बार कहना चाहता हूँ कि मुहम्मद अली और मैं तिलक की पार्टी के थे और आज भी है।” हसरत मुहानी का कथन “उस अल्प आयु में ही मैंने तिलक को अपने लिए आदर्श मान लिया था….. मैंने तिलक को हर दृष्टि से प्रत्येक अन्य नेता से श्रेष्ठ पाया।” डॉ. अंसारी तथा असफ अली जैसे राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता भी उन्हें मुसलमानों का परम मित्र तथा शुभचिन्तक मानते थे। इसके अतिरिक्त तिलक ने वचन दिया था कि यदि बहुसंख्यक मुसलमान मेरा साथ दें तो मैं खिलाफत आन्दोलन का समर्थन करने के लिए तैयार हूँ। तिलक ने अली बन्धुओं की मुक्ति के लिए कांग्रेस के प्रस्ताव को स्वयं प्रस्तुत किया था। यदि तिलक मुस्लिम विरोधी होते, तो इन बड़े मुसलमान नेताओं के विश्वास पात्र कभी नहीं बन सकते थे।

इसलिए कहा जाता है कि यद्यपि व्यक्तिगत जीवन में तिलक का हिन्दुत्व के प्रति गम्भीरतम श्रद्धा थी, किन्तु राजनीतिक नेता के रूप में उनका लक्ष्य, नीति और दृष्टिकोण बहुत व्यापक था। उनके मन और मस्तिष्क में तो केवल विदेशी शासन के प्रति विरोध भावना थी। उनके दृष्टिकोण की उदारता और व्यापकता का प्रमाण यह है कि “विदेशी से तिलक का अर्थ केवल विधर्मी नहीं था। उनका कहना था कि विदेशीपन का सम्बन्ध तो हितों से है, इसलिए जो कोई व्यक्ति भारत के कल्याण के लिए कार्य करता है, वह विदेशी नहीं है।” वस्तुतः वे हिन्दू राष्ट्रवाद शक्तिशाली और शूरत्व प्रधान राष्ट्रवाद के संस्थापक थे।

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