नेहरू के पंचशील सिद्धांत एवं विदेश नीति पर प्रकाश डालिए।
नेहरू के पंचशील सिद्धांत एवं विदेश नीति
पंचशील का सिद्धांत (Panchsheel Agreement)- नेहरू जी ने अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में पंचशील का प्रतिपादन किया। पंचशील सिद्धांत अन्तर्राष्ट्रीय आचरण की एक संहिता थी। इसमें इस बात पर बल दिया गया था कि कोई भी राष्ट्र के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा, अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के लिए युद्ध सह-अस्तित्व के सिद्धांतों का पालन करेंगे। इसके मूल में भी एक ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय समाज की स्थापना की परिकल्पना निहित थी जिसमें हिंसा के स्थान पर अहिंसा को अधिक बल दिया गया हो।
पंचशील का सिद्धांत भारत की विदेश नीति का आधारभूत सिद्धांत है। संसार के लिए पंचशील बान्दुना सम्मेलन की देन है किन्तु भारत में पंचशील अति प्राचीनकाल से मान्य रहा है। पंचशील की पांच प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं-
- एक दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता एवं सर्वोच्च सत्ता का सम्मान करना।
- अनाक्रमण की नीति का पालन करना।
- एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
- समानता एवं पारस्परिक लाभ के लिए कार्य करना।
- शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व का आदर्श अपनाना।
पंचशील को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सबसे पहले भारत-चीन सम्बन्धों के विषय में 1954 में स्वीकार किया गया। इसी वर्ष मार्शल टीटो व नेहरू के वक्ताओं ने इस सिद्धांत को पुष्टि की। 10 अप्रैल, 1955 में दिल्ली में बुलाये गये एशिया अफ्रीका के 14 राष्ट्रों के सम्मेलन में पंचशील को आपसी सम्बन्धों को निर्धारित करने वाले सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया गया। 10 जुलाई, 1956 के ब्रियोनी में प्रकाशित नेहरू-टीटो नासिर वक्तव्य में इसको दोहराया गया।
नेहरू जी भारत की विदेश नीति के प्रणेता व सूत्रधार थे। उन्होंने विदेश नीति में राष्ट्रीय हितों को प्रमुखता दी। उनकी विदेश नीति का प्रेरक तत्व विश्व शान्ति थी। उनकी विदेश नीति के प्रमुख आधार गुटनिरपेक्षता, सहअस्तित्व, पंचशील और संयुक्त राष्ट्र संघ में आस्था थे। वह उपनिवेशवाद प्रजाति भेद के विरोधी थे। वह भारत के मंत्री सम्बन्ध सभी देशों से चाहते थे। भारत की विदेश नीति में यद्यपि कुछ खामियाँ थी किन्तु इससे विश्व में भारत का सम्मान बढ़ा।
विदेश नीति
नेहरू जी की विदेश नीति सभी राष्ट्रों के साथ मित्रता और सहयोग की नौति पर, गुट-निरपेक्षता और तटस्थता पर तथा संसार में स्वतंत्रता और समानता पर आधारित थी। नेहरू जी यह जानते थे कि विदेश नीति कोई ऐसी नीति नहीं है, जिसका सम्बन्ध अन्य देशों पर भी पड़ता है। विदेश नीति शत्रुता और वैमनस्य पर नहीं आधारित होनी चाहिये। विदेश नीति का लक्ष्य मित्रों की संख्या वृद्धि होनी चाहिए, उसे महाशक्तियों की गुटबन्दी से पृथक रहना चाहिए, किसी भी देश के प्रति कटु भावों का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे लाभ के स्थान पर अन्ततः हानि ही अधिक पहुँचती हैं।
नेहरू का उद्देश्य अधिकाधिक देशों के साथ आर्थिक, राजनीति और सांस्कृतिक सम्बन्धों की स्थापना था। विदेश नीति के बारे में उनका विचार यह है कि हमें दूसरे देशों के पीछे खड़े होने की आवश्यकता क्या है, हमारा देश तो खुद ही इतना महान, गौरवशाली, शक्तिशाली और विशाल है कि हम स्वयं दूसरों को अपने पीछे खड़े कर सकते हैं। नेहरू की विदेश नीति की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित थीं-
- विश्व राजनीति के किसी भी गुट में सम्मिलित न होना,
- विश्व शांति की स्थापना का प्रयत्न और विभिन्न समस्याओं को हल करने के लिए परस्पर विचार-विमर्श करना,
- आर्थिक नीतियों का निर्धारण स्वयं ही करना,
- विश्व के सभी देशों से मित्रता बनाये रखना,
- विश्व के देशों की विदेश नीतियों से निरपेक्ष बने रहना,
- देश की प्रतिष्ठा की रक्षा करना।
नेहरू जी की विदेश नीति की सफलता और विफलता दोनों ही 1962 में भारत पर हुये। चीनी आक्रमण के दौरान स्पष्ट हुयी, जबकि सोवियत रूस चीन का विरोध नहीं कर पाया, किन्तु भारत के धुर विरोधी कहे जाने वाले अमेरिका और पश्चिमी राष्ट्र खुलकर भारत के साथ आये। स्वयं नेहरू जी भी मानते थे कि विदेश नीति का सम्बन्ध अपनी रक्षा करने से सम्बन्धित होना आवश्यक है, क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की स्थापना के मूल में अन्ततः यही भावना समाहित रहती है कि संकट के समय देश को वाह्य सहायता और सहयोग की प्राप्ति हो सके। हमारी नीति का उद्देश्य यथासम्भव युद्ध से बचना और उसकी रोकथाम होना चाहिए। युद्ध के दौरान चुनौतियाँ, भला-बुरा कहना, धमकियाँ देना युद्ध की भयावहता को और बढ़ाता है, क्योंकि इससे दूसरा देश डरेगा और वह सभी ऐसे उपाय करेगा, जिससे कि हम भी डरें। आलोचकों के अनुसार, नेहरू जी मूलतः एक दार्शनिक और भावुक राजनीतिज्ञ थे, अतः उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के दांव-पेंचों का व्यावहारिक अनुभव न था। समाजवाद के प्रति मोह होने के कारण ही उन्होंने एक ओर तो -अपनी विदेश नीति में सोवियत रूस और के प्रति सर्वत्र अपना समर्थन प्रदर्शित किया और अमेरिका तथा पश्चिमी राष्ट्रों का खुलकर समर्थन किया, किन्तु मुस्लिम राष्ट्र ‘काश्मीर समस्या’ पर पाकिस्तान के साथ ही रहे। तिब्बत की स्वायत्तता को विस्तृत कर देना ही भारत पर चीनी आक्रमण का मूल कारण सिद्ध हुआ। नेहरू जी इस सनातन तथ्य की अवहेलना करते हुए युद्ध और प्रेम में सब कुछ उचित है और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की स्थापना और विदेश नीति के प्रतिपादन में राष्ट्रीय हित को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है, न कि अन्तर्राष्ट्रीयता को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की स्थापना दीर्घकालिक हितों एवं स्वार्थों को ध्यान में रखकर की जाती है। इसमें केवल और केवल राष्ट्रीय हित और राष्ट्र की सुरक्षा ही सर्वोपरि स्थान रखती है, क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध समय के अनुसार बदलते रहते हैं। कदाचित नेहरू जी इस सत्य को विस्मृत कर बैठे थे।
IMPORTANT LINK
- भारतीय पुनर्जागरण की प्रकृति की विवेचना कीजिए।
- भारतीय पुनर्जागरण एवं राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि | Background of Indian Renaissance and Nationalism in Hindi
- राजा राममोहन राय के सामाजिक विचार | Social thoughts of Raja Rammohan Roy in Hindi
- राजा राममोहन राय के योगदान | Social thoughts of Raja Rammohan Roy in Hindi
- राजा राममोहन राय द्वारा ब्रह्म समाज की स्थापना क्यों की गई? इसके उद्देश्य एवं सिद्धान्त
- आधुनिक भारत के जनक राजा राममोहन राय
- स्वामी दयानन्द के राजनीतिक विचार, सामाजिक एवं धार्मिक विचार
Disclaimer: GeneralKnowlage.Com The material and information contained on this website is for general information purposes only. If you have a complaint about something or find your content is being used incorrectly then kindly mail us: generalknowlage1233@gmail.com