भारतीय पुनर्जागरण के लिए कौन से तत्व उत्तरदायी थे? समीक्षा कीजिए।
भारतीय पुनर्जागरण के लिए उत्तरदायी तत्व
भारतीय पुनर्जागरण के लिए अनेक तत्व उत्तरदायी हैं। ये तत्व इस प्रकार हैं-
(i) पाश्चात्य शिक्षा
पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार ने भारतीय पुनर्जागरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ब्रिटिश सरकार ने भारत में पाश्चात्य शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया। फलतः पाक्षात्य सभ्यता एवं शिक्षा का व्यापक प्रभाव पुनर्जागरण पर भी पड़ा। भारतीयों ने पाश्चात्य सभ्यता के सम्पर्क में आकर ही अन्य देशों के राष्ट्रवादी विचारों से प्रेरणा प्राप्त की। उन्होंने पाक्षात्य देशों की स्वतंत्रता का ज्ञान प्राप्त कर भारत को भी स्वाधीन बनाने का दृढ़ निश्चय किया।
पाक्षात्य शिक्षा का भारतीय पुनर्जागरण पर एक दूरगामी प्रभाव यह पड़ा कि पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त करने के लिए बहुत से भारतीय नवयुवकों ने यूरोप की यात्रायें प्रारम्भ की। अंग्रेजी भाषा के माध्यम से भारतीय वैज्ञानिक एवं तकनीशियन विश्व के सम्पर्क में आये और जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण अधिक व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक हो गया। 1857 में मुम्बई, कोलकाता तथा मद्रास (चेन्नई) विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। आर. जी. भण्डारकर, महादेव रानाडे, चिपलूंकर, बाल गंगाधर तिलक एवं गोपाल कृष्ण गोखले आदि नवयुवकों ने उच्च पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त की। बंगाल के रवीन्द्रनाथ टैगोर, अरविन्द घोष, विवेकानन्द, जगदीश चन्द्र बसु, चितरंजन दास, विपिन चन्द्र पाल और पी. सी. राय ने पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त कर बंगाल में सुधारवादी आंदोलन का सूत्रपात किया। पंजाब में लाला हरदयाल, स्वामी रामतीर्थ, लाला लाजपत राय आदि ने राष्ट्रीय आन्दोलन की नींव डाली। ये सभी उच्च शिक्षा प्राप्त नवयुवक थे। राष्ट्रीय आंदोलन के महानतम नेता महात्मा गाँधी ने लन्दन से वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की। इस प्रकार पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीय नवयुवकों को पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति से परिचित कराया जिससे वे तत्कालीन पाश्चात्य विचारकों की राष्ट्रवादी भावनाओं और विचारों से परिचित हुए। फलतः वे राष्ट्रीय भावना से उद्वेलित होकर भारत में भी पुनर्जागरण की तैयारी करने लगे।
(ii) यूरोप के बुद्धिवादी युग का भारतीय पुनर्जागरण पर प्रभाव
18वीं शताब्दी यूरोप में बौद्धिक जागरण का युग था। यूरोपीय जनता ने इस युग में प्राचीन प्रथाओं, रूढ़ियों, अन्धविश्वासों की जंजीरों से मुक्त होने का प्रयत्न किया। मानव बुद्धि को ज्ञान के प्रकाश ने प्रकाशित कर दिया। लोग बौद्धिक शक्ति को वास्तविकता जानने का साधन समझने लगे। सभी लोग तर्क एवं बुद्धि को वस्तु की वास्तविकता जानने के लिए प्रयुक्त करने लगे। बुद्धिवाद ने धार्मिक संकीर्णता की अवहेलना की। लोगों ने अन्धविश्वास त्यागकर मध्य युग से आधुनिक युग में प्रवेश किया। चर्च की सत्ता एवं आध्यात्मवाद की भावना को क्षति होने लगी। अब अनुभववाद को वास्तविक मूलक की ज्ञान प्रणाली के रूप में स्वीकार किया जाने लगा। यूरोपवासियों ने चर्च की सत्ता की श्रेष्ठता को चुनौती दी। यूरोपवासियों के इस बौद्धिक जागरण का भारतीयों पर विशेष प्रभाव पड़ा और वे भी आध्यात्मिक सत्ता को संदेह की दृष्टि से देखने लगे। उन्होंने पाश्चात्य बुद्धि से प्रभावित होकर आध्यात्मिक सत्ता को चुनौती दी। भारतीय नेताओं ने देश की प्राचीन प्रथाओं- सती प्रथा, विवाह, बहुविवाह, बाल हत्या तथा अस्पृश्यता की कटु आलोचना की और उन्हें अहितकारी सिद्ध करने का प्रयास किया। इस प्रकार यूरोप के बुद्धिवाद प्रसार से भारतीय जनजीवन में भी नवजागरण का काल आ गया।
(iii) ईसाई मिशनरियों का धर्म प्रचार
लार्ड मैकाले भारतीयों को पाञ्चात्य सभ्यता में रंगकर उन्हें पूर्णतया यूरोपीय बना देना चाहता था किन्तु भारत में राष्ट्रवाद की जड़ें कितनी गहराई तक पहुँची हुई कि उन्हें हिलाना एक असम्भव कार्य था किन्तु फिर भी पाश्चात्य सभ्यता ने भारतीय नवयुवकों को अपने रंग में रंग अवश्य लिया। यद्यपि वह भारतीयों की आत्मा को प्रभावित करने में सफल न हो सकी। राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत भारतीय जनता पाश्चात्य सभ्यता में रंग कभी अपनी मातृभूमि के प्रति उदासीन न रह सकी। अंग्रेजों द्वारा भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने के पश्चात् ईसाई मिशनरियों ने देश में अपने धर्म का प्रचार प्रारम्भ कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने सन् 1833 ई. के चार्टर एक्ट राजधानी का बिशप बना दिया। ईसाईयों ने प्रत्येक नगर में अपने प्रचार केन्द्र स्थापित किये और अनुसार कोलकाता के बिशप को उनका ध्यान दलित जातियों पर विशेष रूप से केन्द्रित हुआ। वे साधारण जनजातियों और दलित जातियों को प्रभावित करने में सफल भी हुए किन्तु वे भारत के धार्मिक जीवन को प्रभावित करने में सफल न हो सके और उच्च वर्ग पर उनका प्रभाव नगण्य ही रहा। इसकी प्रक्रिया स्वरूप भारत में धार्मिक पुनर्जागरण का प्रादुर्भाव हुआ।
(iv) सामाजिक पुनर्जागरण
पाक्षात्य शिक्षा के प्रभाव के कारण सामाजिक पुनर्जागरण का सूत्रपात हुआ। भारतीय नवयुवकों ने भारतीय समाज के दोषों के उन्मूलन का बीड़ा उठाया। हिन्दू समाज की जटिलताओं ने उन्हें इन सुधारों के क्रियान्वयन हेतु प्रेरित किया। इस उद्देश्य से भारतीय सुधारवादी नेताओं ने ब्रह्म समाज, आर्य समाज तथा रामकृष्ण मिशन जैसी संस्थाओं की स्थापना की। इन संस्थाओं का संक्षिप्त परिचय देना यहाँ पर आवश्यक होगा।
(v) भारतीय संस्कृति का पुनरुद्धार
स्वामी रामतीर्थ और स्वामी विवेकानन्द द्वारा भारतीय धर्म एवं संस्कृति के प्रचार ने यूरोपवासियों की आँखें खोल दीं और उनमें भारतीय संस्कृति के प्रति गहरी रुचि उत्पन्न हुई। उन्होंने भारतीय ग्रन्थों का अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया। अपने ग्रन्थों में यूरोपियनों का यह आकर्षण देखकर भारतीयों को अपने अतीत गौरव का ज्ञान हुआ और वे अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ समझने लगे। धीरे-धीरे भारतीयों की श्रद्धा, भारतीय साहित्य के प्रति बढ़ती गई और आध्यात्मवाद पुनः जोर पकड़ने लगा। सर्वश्री अरविन्द घोष, श्रीमती एनीबेसेण्ट, बाल गंगाधर तिलक, स्वामी रामतीर्थ तथा स्वामी विवेकानन्द आदि विभूतियों ने भारतीय संस्कृति का पुनरुद्धार किया।
उपरोक्त के अतिरिक्त आर्थिक, राजनीतिक, साहित्यिक पुनर्जागरण, एवं अंग्रेजी उदारवाद आदि भी भारतीय पुनर्जागरण के प्रमुख उत्तरदायी तत्व थे।
IMPORTANT LINK
- भारतीय पुनर्जागरण की प्रकृति की विवेचना कीजिए।
- भारतीय पुनर्जागरण एवं राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि | Background of Indian Renaissance and Nationalism in Hindi
- राजा राममोहन राय के सामाजिक विचार | Social thoughts of Raja Rammohan Roy in Hindi
- राजा राममोहन राय के योगदान | Social thoughts of Raja Rammohan Roy in Hindi
- राजा राममोहन राय द्वारा ब्रह्म समाज की स्थापना क्यों की गई? इसके उद्देश्य एवं सिद्धान्त
- आधुनिक भारत के जनक राजा राममोहन राय
- स्वामी दयानन्द के राजनीतिक विचार, सामाजिक एवं धार्मिक विचार
Disclaimer: GeneralKnowlage.Com The material and information contained on this website is for general information purposes only. If you have a complaint about something or find your content is being used incorrectly then kindly mail us: generalknowlage1233@gmail.com